सोमवार, 2 दिसंबर 2013

सुर मिले न साज


एक दौर वो था जब किसी संगीतकार के साथ अपने सुर मिलाने के लिए देश के महान गायक घंटों रियाज करते थे और उसके बाद गाने की रिकार्डिंग की जाती थी। आज के दौर में युवा गायकों को संगीतकारों के साथ रिकार्डिंग और रिहर्सल करने का मौका भी नहीं मिलता क्योंकि वे अपने साउंड ट्रेक स्टूडियो में ई-मेल करके भेज देते हैं, जिसे साउंड इंजीनियर की मदद से रिकार्ड कर लिया जाता है। बाद में जो क मी दिखती है उसे आधुनिक तकनीकी की मदद से छिपा लिया जाता है। नए युग की तकनीकी जितनी युवाओं की मदद कर रही है, उतना ही उसका नुकसान संगीतकारों का सानिध्य छिन जाने के रूप में सामने आ रहा है। क्या ये मशीनेें संगीत में जान डालने का काम भी कर सकती हैं। अगर हां तो वो समय दूर नहीं जब देश के उम्दा गायक इसी चक्रव्यूह में अपना भविष्य खोते नजर आएंगे...

 स्नेहा पंत तकरीबन 15 साल पहले दिल्ली से मुंबई आई थीं। उनमें गायिकी की वो सारी खूबी थी जो किसी भी कुशल गायक के लिए जरूरी होती है। उन्होंने किराना घराना से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। कल्याण जी-आनंद जी ने उनकी आवाज की तारीफ की और 1998 में स्नेहा ने सा रे गा मा पा में श्रेया घोषाल को हराकर खूब नाम कमाया था। स्नेहा ने 2001 में सुभाष घई की फिल्म 'यादेेंÓ मेें दिल की दुनिया में गाना गाया था। फिल्म के संगीतकार अनु मलिक इस गाने के लिए उनकी आवाज को परफेक्ट मानते हैं। उसके बाद हर दूसरी फिल्म के लिए नई आवाज की तलाश करने वाले संगीतकारों के बीच स्नेहा की मधुर आवाज गुम हो गई।
हिंदी फिल्मी जगत में एक वो दौर था जब संगीतकारों को सुपरस्टार माना जाता था लेकिन अब हर दूसरी फिल्म में सुनाई देने वाली नई आवाज को श्रोता सुनते हैं और जल्दी ही भूल जाते हैं। इस दौर में फिल्म निर्माण की नई तकनीकी का असर गायकी पर भी दिखाई देता है। इस बात से आज भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी फिल्म की सफलता में उस फिल्म के संगीत का बड़ा हाथ होता है। दर्शकों का उस गाने के गायकों से भावनात्मक लगाव पैदा होता है। फिर चाहे वो मोहम्मद रफी हों या किशोर कुमार। यहां तक कि जब 1949 में फिल्म दिल्लगी में सुरैया के मशहूर गीत तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी और 1954 में मिर्जा गालिब का गाना दिल-ए-नादान रिलीज हुई तो उनकी आवाज के दीवाने मैरिन ड्राइव पर सुरैया के घर के सामने उनकी एक झलक के लिए रोज घंटों खड़े रहते थे। लता मंगेशकर के लिए बड़े गुलाम अली खान कहते थे कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती।
आज के संदर्भ में संगीत की समझ रखने वाले महान गायकों से अलग वो दौर जारी है जहां आवाज की मधुरता पर किसी का ध्यान नहीं है। गैंग ऑफ वासेपुर के लिए स्नेहा खांवलकर पटना की दो हाउसवाइफ को गाने के लिए लेकर आई थी। जिंदगी न मिलेगी दोबारा में रितिक रोशन, अभय देओल और फरहान अख्तर पर फिल्माया गया सेनोरिटा गीत के लिए प्रोडक्शन हाउस से जुड़े लोगों की आवाज ली गई थी। तलाश में सुमन श्रीधर, लुटेरा में शिल्पा राव, मिका सिंह और शेफाली की आवाज आज युवाओं के बीच छाई हुई है। गायिका महालक्ष्मी अय्यर के अनुसार अगर आपकी आवाज दूसरों से अलग है तो उसे पसंद करने वालों की कमी नहीं है। कैलाश खेर भी इस बात से सहमत हैं और कहते हैं कि गायकी में बदलाव इस दौर की परंपरा साबित हो रही है। इस बदलाव का असर देश के स्थापित गायक सोनू निगम, सुनिधि चौहान, शान और केके के संगीत कैरियर को भी प्रभावित कर रहा है जिसकी वजह से उनकी आवाज भी अब कम ही सुनाई देती है। किसी जमाने की वो धारणा जिसमें राजेश खन्ना के लिए किशोर कुमार की, आमिर खान के लिए उदित नारायण की आवाज को उपयुक्त माना जाता था, अब नहीं रही। नूतन और मधुबाला के हर गाने को लता मंगेशकर की आवाज से पहचाना जाता था लेकिन गायक अभिजीत भट्टाचार्य का कहना है कि आज किसी गायिका द्वारा बीस गाने गाने के बाद भी कोई उसका नाम नहीं जानता। संगीतकार राम संपथ के अनुसार इस युग के संगीतकार स्वतंत्र हैं और वे अलग-अलग तरह की आवाज के साथ प्रयोग करना पसंद करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सुर के साथ समझौता करते हैं। कुछ हटकर सुनने की चाह इस समय के श्रोताओं में इस हद तक है जिसके चलते वे कुछ करने की धुन में हमेशा दिखाई देते हैं। शांतनु मोइत्रा ने परिणिता के लिए यह कोशिश की थी कि आवाज में क्लासिकल कम हो जो वेबसाइट पर युवाओं की पसंद बन सके। इसकी एक बड़ी वजह भारतीय सिनेमा में महिलाओं के पात्र में जिस तरह का बदलाव हुआ है, उसका असर गायकी पर भी दिखाई देता है। कुछ दशक पहले आम भारतीय महिला की आवाज के लिए लता मंगेशकर और लीक से हटकर गानों के लिए आशा भोंसले की आवाज को उपयुक्त माना जाता था। 1990 तक आर्केस्ट्रा में रहने वाले सौ लोगों को रिकार्डिंग से पहले अलग-अलग विभाजित किया जाता था। फिर ओ पी नैयर, अनिल बिस्वास और नौशाद इस बात पर भी ध्यान देते थे कि जिस अभिनेता के लिए गीत गाया जा रहा है, उस गायक के अनुसार आवाज को रूपांतरित किया जाए। इन बातों का ध्यान रखते हुए राज कपूर खुद रिकार्डिंग के समय स्टूडियो में मौजूद रहते थे। आजकल की जाने वाली रिकार्डिंग एक छोटे कमरे तक सीमित होकर रह गई है जहां गाने के अलग-अलग हिस्सों को अलग समय में रिकार्ड किया जाता है। अभिजीत भट्टाचार्य के अनुसार इन दिनों रिकार्डिंग के समय संगीतकार भी वहां रहना जरूरी नहीं समझते। वे ई-मेल से अपना ट्रेक भेज देते हैं और साउंड इंजीनियर गायक के साथ उसे रिकार्ड करता है। पूरा गाना एक दिन में कभी रिकार्ड नहीं होता। एक गायक को सबसे बुरा उस समय लगता है जब उससे कहा जाता है आप एक्सप्रेशन दीजिए बाकी हम संभाल लेंगे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कभी सुर की तान पर सबसे ज्यादा ध्यान देने वाले फिल्मी जगत में आज बेसुरापन गलत नहीं माना जाता। इसके बाद भी युवा गायक मानते हैं कि संगीत जगत में रचनात्मकता खत्म नहीं हुई है। आधुनिक तकनीकी की मदद से किसी गायक की आवाज की कमियों को तो छुपाया जा सकता है लेकिन आवाज में जान नहीं डाली जा सकती। गायकी की ये वही विशेषता है जिसका जवाब देना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा।

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