शनिवार, 22 सितंबर 2012

साहित्य में गुणवत्ता कम हो रही है
गोविंद मिश्र


वरिष्ठï साहित्यकार गोविंद मिश्र को 2008 में उनके उपन्यास कोहरे में कैद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार और व्यास सम्मान के अलावा सुब्रह्मïïïण्यम भारती सम्मान प्राप्त है। उनका लिखने का सफर अब भी जारी है। पेश है उनसे बातचीत के मुख्य अंश....

आप हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठिïत लेखक हैं। आपने अब तक 10 उपन्यास को शामिल करते हुए 50 पुस्तकें लिखी हैं। उपन्यास, कहानियां, यात्रा, कविताएं, निबंध लिखने के बाद क्या आप अब भी कुछ लिख रहे हैं?
मैंने एक बार कहा था कि मेरे लिए लिखना सांस लेने जैसा है। इस बात पर मुझे ताज्जुब होता है कि बिना लिखे कोई लेखक कैसे रह सकता है। लिखने का मतलब सिर्फ कागज पर उतारना नहीं है, बल्कि लिखने के क्रम में बने रहना है। फिलहाल मैंने अपना 11वां उपन्यास प्रकाशन को दिया है जिसका नाम है अरन्य तंत्र।
उपन्यास या कहानियों से ही क्या आपके लेखन की शुरुआत हुई थी?
जब मैं इंटर में पढ़ता था तो मैंने दो-तीन कहानियां लिखीं। उसके बाद जब मैं नौकरी करने लगा तो एक मित्र के यहां हफ्ते में एक दिन गोष्ठीï होती थी, जिसमें सभी मित्रों द्वारा जो भी लिखा जाता था वो सुनने को मिलता था। वहां मैंने कुछ गीत और कविताएं सुनाईं। पीछे मुड़कर देखता हूं तो ये समय वह था जब मेरी सृजनात्मकता माध्यम तलाश रही थी। इस दौर में कहानियों का लिखा जाना इस बात का प्रमाण है कि मेरी सृजनात्मकता की विधा कहानी या उपन्यास ही थी।
लेकिन इन सभी विधाओं में आपकी प्रिय विधा कौन सी है?
मुझे सबसे ज्यादा संतोष उपन्यास लिखने में उलझे रहने से मिलता है, क्योंकि वहां आप जीवन को उसके पूरे फैलाव, पेचिदगियों और गहराई से पकड़ते हुए चलते हैं। इस मायने में हर उपन्यास लेखन एक चुनौती के रूप में हमारे सामने होता है।
आपके उपन्यासों में एक ओर घोर यथार्थपरक उपन्यास तो दूसरी ओर कोमल उपन्यास शामिल है। ऐसा माना जाता है कि ये दो अलग-अलग लेखन की दिशाएं हैं। आप इन दोनों को एक साथ कैसे साधते हैं?
जीवन में इस तरह का वर्गीकरण होता है क्योंकि ये यथार्थ है या सिर्फ सौंदर्यï? कभी-कभी घोर यथार्थ में भी सौंदर्य छलक जाता है और सुंदरता का संसार तो यथार्थ से टकराता ही है। मैं यह सोचकर नहीं चलता कि अब मुझे यथार्थपरक लिखना है या दूसरी तरह का। जिस तरह के जीवन से उस समय टकराना हुआ और जिसने लिखने के लिए उकसाया उसी को पकडऩे के लिए चल दिया।
क्या आप ये मानते हैं कि साहित्य में राजनीति बढ़ती जा रही है?
ये सही है। कोई भी क्षेत्र आज राजनीति से
अछूता नहीं रह गया है। ये आचरण आज हमारे हर तीसरे व्यक्ति में देखा जा रहा है तो फिर साहित्य कैसे बचा रह सकता है। प्रदेशों में जिस विचारधारा वाली पार्टी की सरकार होती है, वे अपने चापलूसों को साहित्यकार बनाकर पेश करते हैं। साहित्य में जो पुराने लेखक हैं उनमें से कुछ अपने चापलूसों की सेना खड़ी कर वाहवाही कराते हैं। प्रकाशक अपने सीमित स्वार्थों के लिए नए लेखकों को प्रतिभावान बनाकर प्रस्तुत करते हैं और उन्हें लाखों के पुरस्कार देते हैं। साहित्य में स्तरता और गुणवत्ता की बातें कम होती जा रही हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें