सोमवार, 2 दिसंबर 2013

ऐसी लागी लगन 

जिस तरह से भारतीय संस्कृति में हिंदू धर्मगुरुओं का महत्व सदियों से कायम है, उसी तरह देश की राजनीति में उनकी चर्चा हमेशा से रही है। फिर बात अगर चुनावी माहौल की हो तो मध्यप्रदेश सहित अन्य चुनावी क्षेत्र अपने-अपने राजनैतिक गुरुओं के सानिध्य में मार्गदर्शन लेते नजर आ रहे हैं। इन धर्मगुरुओं पर राजनेताओं का अटूट विश्वास ही इन्हें राजनैतिक मार्गदर्शक के रूप में विशिष्ट स्थान प्रदान करता है....

प्रदेश के सियासी हलकों में आध्यात्मिक झुकाव सहसा बढ़ गया है। टिकट के लिए हाथ-पांव मारने वाले हों या उम्मीदवारी तय होने के बाद जीत की आशा से लबरेज राजनीति के खिलाड़ी, सभी धार्मिकता के प्रवाह में बहे चले जा रहे हैं। उन्हें जहां से भी आशीर्वाद या चमत्कार की जरा-सी भी आशा है, वहां मत्था टेकने से वे कतई गुरेज नहीं करते। लिहाजा, धर्मगुरुओं के यहां आने वाले सफेद कुर्ताधारियों की संख्या में खासा इजाफा हो गया है। वे हर हाल में टिकट और जीत चाहते हैं। जिन धर्मगुरुओं की राजनीति में पैठ है, उनके शागिर्द दिल्ली के राजनीतिक गलियारों के अलावा मठों व धार्मिक स्थलों पर भी देखे जा सकते हैं। राजनेताओं के बीच छाए हुए ऐसे ही धर्मगुरुओं में से एक हैं रावतपुरा सरकार के नाम से मशहूर संत रविशंकर। इनका नाम चंबल क्षेत्र के रावतपुरा गांव में हनुमान मंदिर बनने के साथ ही मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के राजनेताओं के बीच पहचाना जाने लगा। वे पॉलिटिकल साधु के रूप में पहचाने जाते हैं। पूर्व गृह राज्यमंत्री डॉ. गोविंद सिंह के साथ उनके संबंध जगजाहिर हैं। उनके नाम से रायपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। शिक्षा के क्षेत्र में उनके द्वारा किये गए कार्य देखते ही बनते हैं। उनके ट्रस्ट रावतपुरा सरकार एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स ने फार्मेसी, नर्सिंग, आधुनिक विज्ञान और स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना न सिर्फ मध्यप्रदेश, बल्कि छत्तीसगढ़ में भी की। सूूत्रों के अनुसार रावतपुरा सरकार एक संत के रूप में 1990 से प्रसिद्ध हुए। उस समय उनकी उम्र महज सत्रह साल थी। जल्दी ही उनकी आध्यात्मिक शक्ति का अंदाजा राजनेताओं को हुआ और मध्यप्रदेश के कुछ प्रमुख सांसदों की गिनती उनके भक्तों के रूप में होने लगी। गोपाल भार्गव और प्रभात झा ऐसे ही नामों में से एक हैं। उमा भारती और दिग्विजय सिंह अक्सर उनसे संपर्क करते हैं। सत्यनारायण शर्मा जो फिलहाल छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के मंत्रिमंडल में हैं, रावतपुरा सरकार के प्रिय भक्तों में से एक हैं।
चुनावी दंगल में उतरे उम्मीदवारों में कोई वैष्णो देवी के दर्शन कर मन्नत मांग रहा है तो कोई नर्मदा तट पर चातुर्मास कर रहे संत महात्माओं का आशीर्वाद ले रहा है। ऐसे ही संतों में एक हैं भय्यू जी महाराज।
सूर्योदय आश्रम मिशन के प्रणेता उदय सिंह देशमुख उर्फ  भय्यू जी महाराज कभी मॉडल रह चुके हैं और आज वह कई राजनेताओं के लिए रोल मॉडल बन गए हैं। आध्यात्मिक गुरु होने के बावजूद हर दल के नेताओं से उनके नजदीकी सम्बंध हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, नितिन गडकरी, उद्धव ठाकरे और विलासराव देशमुख से उनके अच्छे सम्बंध हैं।
मध्यप्रदेश के शुजालपुर में जन्मे उदय सिंह देशमुख उन लोगों में से हैं, जिन्हें कार्पोरेट जगत और मॉडलिंग की दुनिया रास नहीं आई। उन्होंने उस चकाचौंध की दुनिया को छोड़कर समाज सुधार का अभियान छेड़ा। इसलिए समाज ने उन्हें नया नाम दिया, भय्यू जी महाराज। 44 वर्षीय भय्यू जी महाराज को देखकर पहली नजर में लगता नहीं कि वह कोई संत हैं।
उनके ट्रस्ट द्वारा किसानों के लिए धरतीपुत्र सेवा अभियान और भूमि सुधार, जल, मिट्टी व बीज परीक्षण प्रयोगशाला, बीज वितरण योजना चलाई जाती है। विजयवर्गीय और रमेश मंडोला उनके करीबी हैं। इसी तरह कनकेश्वरी देवी के परम भक्तों मे से एक हैं कैलाश विजयवर्गीय, रमेश मंडोला और युवा भाजपा सांसद विश्वास सारंग जिन्हें उनके आश्रम में अक्सर देखा जाता है। कनकेश्वरी देवी को उनके भजनों के लिए जाना जाता है। उनके कार्यक्रम प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों में आयोजित होते रहते हैं। जिन दिनों भोपाल में उनके भाषण हुए थे तब विजयवर्गीय के घर वे ठहरी थीं और इस साध्वी के सम्मान में उनके घर को दीवाली की तरह रोशनी से सजाया गया था। संतों के मुरीद उनके सम्मान में कोई कमी नहीं रहने देते। स्वामी अवधेशानंद के मुरीदों में कांग्रेस नेता अजय सिंह का नाम सबसे पहले आता है। स्वामी जी साल में कम से कम एक बार प्रवचन के लिए भोपाल अवश्य आते हैं और वे जब भी यहां आते हैं, अजय सिंह के अतिथि होते हैं। पिछली बार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी पत्नी साधना सिंह के साथ अवधेशानंद जी गिरि के श्रीमद्भागवत कथा प्रसंग में शामिल हुए थे। आधुनिक तकनीकी और वो भी खासतौर से कंप्यूटर का प्रयोग अपने भक्तों को मार्गदर्शन देने के लिए करने वाले नामदेव दास त्यागी को कंप्यूटर बाबा के नाम से जाना जाता है। 2006 में उन्होंने दावा किया था कि वे लोगों की समस्या का समाधान उतनी ही जल्दी कर सकते हैं जितनी जल्दी कंप्यूटर करता है। उनका आश्रम इंदौर में एरोड्रम रोड पर गोमतगिरि के पास है। सन 2006 में  बाबा उस समय लोगों की नजरों में आए जब उन्होंने इंदौर कलेक्टर विवेक अग्रवाल के विरोध में भूख हड़ताल की थी। विवादों से घिरे बाबा के अनुयायियों में कैलाश विजयवर्गीय और उनके करीबी रमेश मंडोला का नाम लिया जाता है। देपालपुर के कांग्रेस सांसद सत्यनारायण पटेल उनके परम भक्तों में से एक हैं। सन 90 में राम मंदिर आंदोलन के बाद से संत महात्माओं का प्रत्यक्ष पदार्पण राजनीति में देखते ही बनता है जिसकी चर्चा निरंतर जारी रहती है। मध्यप्रदेश की राजनीति में एक ओर जहां कई साधु-संतों ने हाथ आजमाया, वहीं ऐसे भी कई नाम हैं जो प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से अलग रहते हुए भी राजनेताओं के सलाहकार और कर्ताधर्ता के रूप में छाए रहते हैं। इन्हीं में जगद गुरु शंकराचार्य स्वरूपानंद जी महाराज का नाम प्रसिद्ध है। मध्यप्रदेश के राजनेताओं के बीच शंकराचार्य का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। यद्यपि अक्सर इन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य के नाम से संबोधित किया जाता है लेकिन भाजपा के कई दिग्गज भी इनके परम भक्त हैं। जब वे भोपाल आते हैं तो शिवराज सिंह चौहान, दिग्विजय सिंह और बाबूलाल गौर उनसे आशीर्वाद लेने जाते हैं। गोटेगांव स्थित उनके आश्रम में बड़ी संख्या में राजनेताओं को देखा जाता है।



श्रद्धा, भक्ति और विश्वास


सास-बहू से अलग हटकर छोटे परदे पर पौराणिक धारावाहिकों का प्रसारण बढ़ता जा रहा है। इन धारावाहिकों से दर्शकों की श्रद्धा जुड़ी हुई है। तभी तो दर्शकों की भक्ति और विश्वास का ख्याल रखते हुए वे उनकी हर कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करते हैं। इन भूमिकाओं के लिए कड़ी मेहनत के साथ ही पौराणिक पात्रों के बारे में पूरी जानकारी और भारी मेकअप व कपड़े पहनना भी उनके काम का एक हिस्सा होता है। कभी दर्शक इन्हें भगवान की तरह पूजते हैं तो कभी संघर्ष के बीच खास मुकाम बनाए रखने की जद्दोजहद के बीच टीवी की टीआरपी में वे आगे बढ़ते जाते हैं...
लाइफ ओके पर प्रसारित देवों के देव महादेव में भगवान शिव की भूमिका में मोहित रैना की चर्चा हर घर में है। कॉमर्स में स्नातक की डिग्री हासिल करने वाले मोहित रैना चार्टर्ड अकाउंटेंट की तैयारी कर रहे थे लेकिन इस बीच उनका चयन इस शो के लिए हुआ और वे टीवी अभिनेता बन गए।
मोहित रैना ने इससे पहले मिथुन चक्रवर्ती के साथ फिल्म डॉन मुथु में काम किया है। वे साई फाई टीवी शो अंतरिक्ष, चेहरा, बंदिनी और गंगा की धीज में नजर आए। 31 साल के मोहित अपने स्वर्गीय पिता के साथ अक्सर अमरनाथ मंदिर जाते थे और खुद भी भगवान शिव के भक्त हैं। भगवान शिव की भूमिका के लिए मोहित को तैयार होने में 90 मिनट लगते हैं उसके बाद काफी समय उनके मेकअप को फाइनल टच देने में चला जाता है। मोहित को इस बात की खुशी है कि लोग उन्हें शिव के रूप में पसंद करते हैं। इसके अतिरिक्त मोहित रैना कहते हैं कि शिव के चरित्र के विभिन्न शेड्स हैं जैसे रोमांस, एक्शन आदि। सच तो यह भी है कि अब तक महादेव को कैलेंडर आर्ट तक सीमित रखा गया था लेकिन इस धारावाहिक की वजह से शिव के व्यक्तित्व की उन बातों को भी प्रचारित किया जा रहा है जो अब तक आम जनता की निगाह से छुपी हुई थीं। लोगों के बीच होने पर उन्हें भगवान का स्थान दिया जाता है। लोग चाहते हैं कि वे उन्हें आशीर्वाद दें। उनसे अधिक उम्र के लोग भी उनके चरण स्पर्श करते हैं। इसी तरह अपने चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान सदैव बनाए रखने वाले सौरभ राज जैन स्टार प्लस पर प्रसारित महाभारत में भगवान कृष्ण की भूमिका में हैैं। 28 साल के सौरभ ने एमबीए किया है और इन दिनों वे भगवान कृष्ण से संबंधित अलग-अलग किताबें पढ़कर उनके बारे में अपनी जानकारी बढ़ा रहे हैं। सौरभ ने इसके पहले जय जय जय श्री कृष्ण में भगवान विष्णु की भूमिका की थी। वे एक कुशल नर्तक भी हैं। धोती, मुकुट, मेकअप और भारी कपड़े पहनने में उन्हें कभी असुविधा नहीं होती। सौरभ के अनुसार कृष्ण की ऊर्जा को मैं अपने अंदर महसूस करता हूं। दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले महाभारत में भगवान कृष्ण को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया था, स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाले महाभारत में कृष्ण की भूमिका उससे अलग है जो दर्शकों को लुभा रही है। सौरभ अपने अनुभव को याद करते हुए कहते हैं कि एक बार एक महिला अपने नवजात शिशु को मेरे पास लेकर आई और कहने लगी कि आप कृष्ण हैं। इसे आशीर्वाद दीजिए। मैंने उसे समझाया कि मैं भी एक आम इंसान हूं, भगवान कृष्ण नहीं लेकिन जब वह नहीं मानी तो मैंने उस बच्चे को आशीर्वाद दिया। पौराणिक पात्रों के अनुरूप दिखने के लिए महाभारत में भीष्म की भूमिका में आरव चौधरी दर्शकों की कसौटी पर खरे उतरे हैं। 43 साल के आरव ने इस धारावाहिक के लिए अपना वजन बॉडी बिल्डर रोहित शेखर के मार्गदर्शन में बारह  से चौदह किलो तक बढ़ाया। आरव पिछले दो दशकों से दर्शकों का मनोरंजन करते रहे हैं। इससे पहले दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले महाभारत में भीष्म की भूमिका मुकेश खन्ना ने अदा की थी जिसे दर्शकों ने खूब पसंद किया। उसी भूमिका पर दूसरी बार बनने वाले महाभारत में खरा उतरना आरव के लिए मुश्किल था। आरव ने हर चुनौती का सामना किया। आरव कहते हैं कि भीष्म हर उम्र के लोगों को प्रेरित करते हैं। इस किरदार के लिए मैंने जी तोड़ मेहनत की है। आरव शूटिंग के समय दस किलो का मुकुट, लगभग उतनी ही भारी तलवार और अन्य वजनदार एक्सेसरीज पहनते हैं। इस भूमिका के लिए वे कश्मीर की वादियों में भी कड़ी ठंड के बीच शूटिंग करते और उसके बाद अपने फिटनेस शेड्यूल को भी बनाए रखते हैं। आरव ये मानते हैं कि अपने वचन के पक्के भीष्म और आरव के स्वभाव में बहुत समानता है। भीष्म जो कहते थे, वो कर दिखाते थे इसी तरह आरव भी अपनी बात के पक्के हैं। आरव की नजरों में इस भूमिका के लिए हमारे देश में दो ही कलाकार उपयुक्त हैं। एक अमिताभ बच्चन जिनका व्यक्तित्व भीष्म पितामह से मिलता-जुलता है और दूसरा डेनी डेनजोंग्पा जो अच्छे पिता, पति और बेटे हैं। ट्विटर पर वे आरेवियन के नाम से छाए रहते हैं। उनके फॉलोअर्स में सबसे ज्यादा संख्या लड़कियों की है। आरव के अनुसार उनसे मिलने वाले कई लोग उनसे अपने प्रसिद्ध डायलॉग बोलने का आग्रह करते हैं। आरव ने पिछले बीस सालों में फिल्मी जगत में बहुत संघर्ष किया। वे कहते हैं अगर कभी उन्हें भीष्म से मिलने का मौका मिले तो वे इस क्षेत्र में किए संघर्ष के बदले उनसे अपने सुरक्षित कैरियर की मांग करेंगे। सहारा वन पर प्रसारित गणेश लीला में नारद मुनि की भूमिका में धीरज मंगलानी को दर्शकों ने सराहा। एक बार फिर वे इसी भूमिका में कलर्स पर प्रसारित जय जगजननी मां दुर्गा में नजर आ रहे हैं। धीरज के अनुसार नारद मुनि को उनकी चुगलखोरी की वजह से लोग जानते हैं लेकिन उनकी भावनाएं बहुत अच्छी थीं, जिन्हें भविष्य में होने वाली घटनाओं के बारे में पहले से ही पता चल जाता था। धीरज यही रोल प्रज्ञा चैनल में सूर्य पुराण और सोनी पर बबोसा मेरे भगवान के लिए भी कर रहे हैं। उनके पास देवों के देव महादेव से भी प्रस्ताव आया था लेकिन वे नारद मुनि की भूमिका से संतुष्ट हैं इसलिए उन्होंने किसी और भूमिका के लिए मना कर दिया।
बॉक्स में
बदल गया दौर
अगर पिछले उदाहरणों को देखा जाए तो दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले रामायण में अरुण गोविल राम की भूमिका में व महाभारत में नीतीश भारद्वाज कृष्ण की भूमिका में बहुत चर्चित थे, लेकिन जैसे ही उनके धारावाहिकों पर विराम लगा तो वह भी लोगों की यादों से गायब हो गए। अब जो कलाकार पौराणिक धारावाहिकों में अभिनय कर रहे हैं वे ये मानते हैं कि समय बदल गया है। एक माध्यम के  रूप में आज टेलीविजन पहले की तुलना में अधिक सशक्त है। बॉलीवुड का हर टॉप अभिनेता टीवी पर अपनी मौजूदगी दर्ज करना चाहता है। साथ ही टेलीविजन के कलाकार भी बॉलीवुड में बहुत सफल हो रहे हैं इसलिए अब छोटा पर्दा 'छोटाÓ नहीं रहा है।

दर्द जब हद से गुजर जाए

देश-विदेश के मशहूर खिलाड़ी हर दिल पर राज करते हैं। उनके पास बेशुमार दौलत है, और दर्द बांटने के लिए एक पार्टनर भी, फिर भी उनकी जिंदगी में कई बार ऐसे लम्हे आते हैं जब वे डिप्रेशन का सामना करते नजर आते हैं। पिछले दिनों ऐसा ही कुछ इंग्लैंड क्रिकेट टीम के अनुभवी बल्लेबाज जोनाथन ट्रॉट के साथ भी हुआ...

जोनाथन ट्रॉट लम्बे समय से चली आ रही तनाव सम्बंधी समस्या के कारण एशेज शृंखला बीच में ही छोड़कर स्वदेश लौट गए। वह इस समस्या से उबरने के लिए अनिश्चितकाल तक  क्रिकेट से ब्रेक ले रहे हैं। ट्रॉट ये भी मानते हैं कि इस समय वे अपनी टीम को 100 फीसदी योगदान नहीं दे पा रहे हैं। डिप्रेशन के चलते इंग्लैंड के क्रिकेटर मार्कस ट्रेस्कोथिक ने अंतर्राष्टï्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया। बत्तीस वर्षीय ट्रेस्कोथिक पिछले कुछ वर्षों से तनाव संबंधी बीमारी से जूझ रहे हैं और इस कारण विदेश यात्रा में उन्हें काफी परेशानी हो रही थी। ट्रेस्कोथिक ने अपना आखिरी टेस्ट मैच पाकिस्तान के खिलाफ ओवल के मैदान में अगस्त 2006 में खेला था। वर्ष 2006 के आखिर में ट्रेस्कोथिक को ऑस्ट्रेलिया दौरे से लौटना पड़ा था और इसके बाद से ही वे किसी विदेशी दौरे पर नहीं गए। इस दौरान उन्हें ये महसूस हो रहा था जैसे वे कैंसर जैसी किसी जानलेवा बीमारी के शिकार हैं। वे कहते हैं डिप्रेशन के दौरान मुझे उन लोगों की तकलीफें समझ में आईं जो आत्महत्या कर लेते हैं। यहां ये समझना जरूरी है कि ये इंसान की कमजोरी नहीं, बल्कि बीमारी होती है। ये बीमारी किसी को नहीं छोड़ती। फिर चाहे वह सेरेना विलियम जैसी मशहूर टेनिस खिलाड़ी ही क्यों न हो। ग्यारह बार गे्रंड स्लेम का खिताब जीतने वाली टेनिस चैंपियन ने अपने जीवन में डिप्रेशन का सामना उस समय किया, जब उनकी बहन येतुंडे की अचानक मृत्यु हो गई। सेरेना अपने अनुभव को याद करते हुए कहती हैं कि उस वक्त मुझे ये अहसास हो रहा था जैसे सारी दुनिया मेरे लिए खत्म हो गई है। मैं ठीक से सांस नहीं ले पा रही थी और मुझे अकेले रहने की सख्त जरूरत थी। जब मुझ पर मानसिक दबाव नहीं होता तभी मैं खेल के दौरान अपना शत-प्रतिशत दे सकती हूं लेकिन उस समय मेरे लिए सबसे जरूरी खेल में प्रदर्शन की चिंता किए बिना मुश्किल हालातों से बाहर आना था। एक बार डिप्रेशन हो जाने पर उससे उबर पाना आसान नहीं होता। ओलंपिक में 800 और 1500 मीटर दौड़ जीतने वाली केली होम्स मानसिक अवसाद का बयान करते हुए कहती हैं कि जब मुझे डिप्रेशन हुआ तो ऐसा लग रहा था जैसे जीवन की सारी आशाएं खत्म हो गई हैं। मैं कैंची से अपने हाथ की नस काट लेना चाहती थी। आगे क्या होगा इसके बारे में सोचना भी मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। उस वक्त मेरे जीवन में कुछ भी सुखद कहलाने के लायक नहीं था। एक बार डिप्रेशन के चंगुल में फंस जाने पर उससे बाहर आना मेेरे साथ-साथ किसी के लिए आसान नहीं होता। इंग्लैंड के पूर्व विकेट कीपर और पहले समलैंगिक क्रिकेटर स्टीव डेविस 2012 में अपने दोस्त टॉम मेनार्ड की मृत्यु के बाद डिप्रेशन में आ गए। डिप्रेशन के चलते खुद को खेल से दूर रखने वाले खिलाडिय़ों में इंग्लैंड विकेटकीपर टीम एंब्रोस का नाम शामिल है। उन्होंने 2009 से क्रिकेट मैच नहीं खेला। वे खुद यह मानते हैं कि उनकी दिमागी हालत टीम के साथ पूरा इंसाफ करने के लायक नहीं है। आस्ट्रेलिया के फास्ट बॉलर शॉन टेट ने 2008 में क्रिकेट से यह कहकर ब्रेक लिया कि उनके दिमाग को आराम करने की जरूरत है।

सुर मिले न साज


एक दौर वो था जब किसी संगीतकार के साथ अपने सुर मिलाने के लिए देश के महान गायक घंटों रियाज करते थे और उसके बाद गाने की रिकार्डिंग की जाती थी। आज के दौर में युवा गायकों को संगीतकारों के साथ रिकार्डिंग और रिहर्सल करने का मौका भी नहीं मिलता क्योंकि वे अपने साउंड ट्रेक स्टूडियो में ई-मेल करके भेज देते हैं, जिसे साउंड इंजीनियर की मदद से रिकार्ड कर लिया जाता है। बाद में जो क मी दिखती है उसे आधुनिक तकनीकी की मदद से छिपा लिया जाता है। नए युग की तकनीकी जितनी युवाओं की मदद कर रही है, उतना ही उसका नुकसान संगीतकारों का सानिध्य छिन जाने के रूप में सामने आ रहा है। क्या ये मशीनेें संगीत में जान डालने का काम भी कर सकती हैं। अगर हां तो वो समय दूर नहीं जब देश के उम्दा गायक इसी चक्रव्यूह में अपना भविष्य खोते नजर आएंगे...

 स्नेहा पंत तकरीबन 15 साल पहले दिल्ली से मुंबई आई थीं। उनमें गायिकी की वो सारी खूबी थी जो किसी भी कुशल गायक के लिए जरूरी होती है। उन्होंने किराना घराना से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। कल्याण जी-आनंद जी ने उनकी आवाज की तारीफ की और 1998 में स्नेहा ने सा रे गा मा पा में श्रेया घोषाल को हराकर खूब नाम कमाया था। स्नेहा ने 2001 में सुभाष घई की फिल्म 'यादेेंÓ मेें दिल की दुनिया में गाना गाया था। फिल्म के संगीतकार अनु मलिक इस गाने के लिए उनकी आवाज को परफेक्ट मानते हैं। उसके बाद हर दूसरी फिल्म के लिए नई आवाज की तलाश करने वाले संगीतकारों के बीच स्नेहा की मधुर आवाज गुम हो गई।
हिंदी फिल्मी जगत में एक वो दौर था जब संगीतकारों को सुपरस्टार माना जाता था लेकिन अब हर दूसरी फिल्म में सुनाई देने वाली नई आवाज को श्रोता सुनते हैं और जल्दी ही भूल जाते हैं। इस दौर में फिल्म निर्माण की नई तकनीकी का असर गायकी पर भी दिखाई देता है। इस बात से आज भी इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी फिल्म की सफलता में उस फिल्म के संगीत का बड़ा हाथ होता है। दर्शकों का उस गाने के गायकों से भावनात्मक लगाव पैदा होता है। फिर चाहे वो मोहम्मद रफी हों या किशोर कुमार। यहां तक कि जब 1949 में फिल्म दिल्लगी में सुरैया के मशहूर गीत तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी और 1954 में मिर्जा गालिब का गाना दिल-ए-नादान रिलीज हुई तो उनकी आवाज के दीवाने मैरिन ड्राइव पर सुरैया के घर के सामने उनकी एक झलक के लिए रोज घंटों खड़े रहते थे। लता मंगेशकर के लिए बड़े गुलाम अली खान कहते थे कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती।
आज के संदर्भ में संगीत की समझ रखने वाले महान गायकों से अलग वो दौर जारी है जहां आवाज की मधुरता पर किसी का ध्यान नहीं है। गैंग ऑफ वासेपुर के लिए स्नेहा खांवलकर पटना की दो हाउसवाइफ को गाने के लिए लेकर आई थी। जिंदगी न मिलेगी दोबारा में रितिक रोशन, अभय देओल और फरहान अख्तर पर फिल्माया गया सेनोरिटा गीत के लिए प्रोडक्शन हाउस से जुड़े लोगों की आवाज ली गई थी। तलाश में सुमन श्रीधर, लुटेरा में शिल्पा राव, मिका सिंह और शेफाली की आवाज आज युवाओं के बीच छाई हुई है। गायिका महालक्ष्मी अय्यर के अनुसार अगर आपकी आवाज दूसरों से अलग है तो उसे पसंद करने वालों की कमी नहीं है। कैलाश खेर भी इस बात से सहमत हैं और कहते हैं कि गायकी में बदलाव इस दौर की परंपरा साबित हो रही है। इस बदलाव का असर देश के स्थापित गायक सोनू निगम, सुनिधि चौहान, शान और केके के संगीत कैरियर को भी प्रभावित कर रहा है जिसकी वजह से उनकी आवाज भी अब कम ही सुनाई देती है। किसी जमाने की वो धारणा जिसमें राजेश खन्ना के लिए किशोर कुमार की, आमिर खान के लिए उदित नारायण की आवाज को उपयुक्त माना जाता था, अब नहीं रही। नूतन और मधुबाला के हर गाने को लता मंगेशकर की आवाज से पहचाना जाता था लेकिन गायक अभिजीत भट्टाचार्य का कहना है कि आज किसी गायिका द्वारा बीस गाने गाने के बाद भी कोई उसका नाम नहीं जानता। संगीतकार राम संपथ के अनुसार इस युग के संगीतकार स्वतंत्र हैं और वे अलग-अलग तरह की आवाज के साथ प्रयोग करना पसंद करते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सुर के साथ समझौता करते हैं। कुछ हटकर सुनने की चाह इस समय के श्रोताओं में इस हद तक है जिसके चलते वे कुछ करने की धुन में हमेशा दिखाई देते हैं। शांतनु मोइत्रा ने परिणिता के लिए यह कोशिश की थी कि आवाज में क्लासिकल कम हो जो वेबसाइट पर युवाओं की पसंद बन सके। इसकी एक बड़ी वजह भारतीय सिनेमा में महिलाओं के पात्र में जिस तरह का बदलाव हुआ है, उसका असर गायकी पर भी दिखाई देता है। कुछ दशक पहले आम भारतीय महिला की आवाज के लिए लता मंगेशकर और लीक से हटकर गानों के लिए आशा भोंसले की आवाज को उपयुक्त माना जाता था। 1990 तक आर्केस्ट्रा में रहने वाले सौ लोगों को रिकार्डिंग से पहले अलग-अलग विभाजित किया जाता था। फिर ओ पी नैयर, अनिल बिस्वास और नौशाद इस बात पर भी ध्यान देते थे कि जिस अभिनेता के लिए गीत गाया जा रहा है, उस गायक के अनुसार आवाज को रूपांतरित किया जाए। इन बातों का ध्यान रखते हुए राज कपूर खुद रिकार्डिंग के समय स्टूडियो में मौजूद रहते थे। आजकल की जाने वाली रिकार्डिंग एक छोटे कमरे तक सीमित होकर रह गई है जहां गाने के अलग-अलग हिस्सों को अलग समय में रिकार्ड किया जाता है। अभिजीत भट्टाचार्य के अनुसार इन दिनों रिकार्डिंग के समय संगीतकार भी वहां रहना जरूरी नहीं समझते। वे ई-मेल से अपना ट्रेक भेज देते हैं और साउंड इंजीनियर गायक के साथ उसे रिकार्ड करता है। पूरा गाना एक दिन में कभी रिकार्ड नहीं होता। एक गायक को सबसे बुरा उस समय लगता है जब उससे कहा जाता है आप एक्सप्रेशन दीजिए बाकी हम संभाल लेंगे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कभी सुर की तान पर सबसे ज्यादा ध्यान देने वाले फिल्मी जगत में आज बेसुरापन गलत नहीं माना जाता। इसके बाद भी युवा गायक मानते हैं कि संगीत जगत में रचनात्मकता खत्म नहीं हुई है। आधुनिक तकनीकी की मदद से किसी गायक की आवाज की कमियों को तो छुपाया जा सकता है लेकिन आवाज में जान नहीं डाली जा सकती। गायकी की ये वही विशेषता है जिसका जवाब देना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा।