शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

उम्मीद की शमा जलती रहे
 
 जीवन और मौत के बीच जब फासला कम हो रहा हो तो जीवन को जीने और समझने का नजरिया बदल जाता है। ऐसे मुश्किल समय में किताबें प्रेरणा बनकर हमारे साथ होती है। शायद इस बात को समझते हुए कैंसर का सामना कर रही महान हस्तियों ने अपने अनुभवों को किताबों के माध्यम से पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। उनकी ये किताबें कैंसर के मरीजों की जिंदगी में उम्मीद की किरण के समान है। आज यही किताबें कैंसर का मुकाबला कर रहे लाखों मरीजों की जिंदगी में उम्मीद की शमा जलाए हुए हैं...

साइकिलिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की किताब इट्स नॉट अबाउट द बाइक -माई जर्नी बैक टू लाइफ कभी कैंसर के मरीज रहे क्रिकेटर युवराज सिंह को जीवन में आगे बढऩे के लिए प्रेरित करती है। हॉकी खिलाड़ी जुगराज सिंह ने भी वर्ष २००३ में सड़क दुर्घटना के बाद इसी किताब को पढ़ा था। इस किताब में आखिर ऐसा क्या है कि कोई भी खिलाड़ी मुश्किल वक्त में इसे जरूर पढ़ता है। यह किताब दरअसल जिंदगी की चुनौतियों से लडऩा सिखाती है। लांस आर्मस्ट्रांग की भाषा में कहें, तो दर्द अस्थायी होता है, जो एक मिनट, एक दिन, एक घंटे या फिर एक साल तक आपको परेशान कर सकता है, पर उस दर्द की वजह से अगर आप मैदान छोड़ दें, तो उसकी पीड़ा ताउम्र सताती है।
शायद कम ही लोग जानते होंगे कि जब लांस ऑर्मस्ट्रांग की च्कीमोथेरेपीज् चल रही थी, तब भी उन्होंने अपना अभ्यास नहीं छोड़ा था। कैंसर की विकसित स्टेज को खुद में पाले रहने के बाद भी आर्मस्ट्रांग को रेसिंग ट्रैक ही नजर आता था। हां, एक वक्त ऐसा जरूर आया, जब उन्हें लगा कि शायद उन्हें साइकिलिंग छोडऩी होगी, पर ऐसे मुश्किल वक्त में ऑर्मस्ट्रांग खुद ही अपनी प्रेरणा बन गए। यह किताब इतनी लोकप्रिय इसीलिए भी हुई, क्योंकि इसमें लोगों को अपनी बीमारी से जूझने के लिए च्मेडिकलीज् कोई मदद भले न मिली हो, पर च्मेंटलीज् काफी मदद मिली। आम तौर पर खिलाड़ी अपनी चोट व बीमारी को छिपाते हैं। वे खुद को कमजोर व लाचार कभी नहीं पेश करना चाहते हैं लेकिन ऑर्मस्ट्रांग जब अपनी बीमारी का जिक्र करते हैं, तो बिल्कुल आम इंसान बन जाते हैं। आर्मस्ट्रांग ने जब कैंसर की लड़ाई जीतने के बाद दोबारा च्टूर द फ्रांसज् में हिस्सा लिया, तो पहले से ज्यादा बेहतर च्टाइमिंगज् और बेहतर रिकॉर्ड के साथ जीत हासिल की। यह रेस दुनिया के सबसे कठिन खेलों में शुमार है। करीब तीन हफ्ते तक चलने वाली इस रेस के दौरान उन्हें ऊंचे-नीचे और पहाड़ी रास्तों से गुजरना होता है। यही खासियत है, जो मुश्किलों से जूझ रहे खिलाडिय़ों को अपने अंदर छिपे च्चैंपियनज् को दोबारा ढूढऩे के लिए प्रेरित करती है। लांस ने कैंसर जैसी बीमारी से लडऩे के बाद इस किताब को लिखकर लोगों को जिस तरह से प्रेरणा दी है उसी की वजह से उनके बाद भी कैंसर के कई रोगियों ने किताबों के माध्यम से इस बीमारी के प्रति लोगों को जागरूक करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
टाइम मैगजीन के पूर्व मैनेजिंग एडीटर वाल्टर इसाकसन ने स्टीव जॉब्स की आत्मकथा लिखने से पहले बैंजामिन फ्रेंकलिन और हेनरी किसिंगर की आत्मकथा लिखी थी। ६५६ पन्नों की स्टीव जॉब्स की आत्मकथा में उन्होंने स्टीव के कैंसर से जुझते हुए अंतिम दिनों को संजोया है। इसाकसन ने लिखा है कि २००४ में जब एपल के संस्थापक स्टीव जॉब्स को कैंसर का पता चला तो डॉक्टर द्वारा दी गई ऑपरेशन की सलाह को मानने के बजाय उन्होंने माइक्राबायोटिक डाइट से अपनी बिमारी को नियंत्रित करना चाहा। मरने से पहले उन्हें इस बात का पछतावा भी रहा कि वक्त रहते उन्होंने डॉक्टर की सलाह क्यों नहीं मानी। इसाकसन ने जॉब्स के लगभग २० इंटरव्यू लिए और उसके बाद उनके परिचितों, दोस्तों और पारिवारिक सदस्यों से बात करके उनकी बॉयोग्राफी लिखी। एक बार वाल्टर ने जॉब्स से पूछा कि आपने ऑपरेशन क्यों नहीं करवाया तो उनका जवाब था कि मैं नहीं चाहता था कि मेरे शरीर को खोला जाए। अंत में जब जॉब्स का ऑपरेशन हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि कैंसर उनके पूरे शरीर में फैल चुका था। जीवन और मौत के बीच जब फासला कम हो रहा हो तो जीवन को जीने और समझने का नजरिया बदल जाता है। क्रिकेटर युवराज सिंह ने अपने हौसलों से न सिर्फ कैंसर से अपनी जंग में जीत हासिल की, बल्कि मैदान में वापसी भी करके दिखाया। अपनी बीमारी को छुपाकर रखने वाले अन्य सेलिब्रिटीज से इतर युवराज ने अपनी किताब च्द टेस्ट ऑफ माई लाइफ-फ्रॉम क्रिकेट टू कैंसर एंड बैकज् में अपने जीवन को खुलकर शेयर किया। अपनी किताब में वे लिखते हैं, च्एक खिलाड़ी के तौर पर हमें दर्द सहना सिखाया जाता है। हम शरीर का प्रशिक्षण और पोषण इस तरह करते हैं कि दिमाग तन की चिंता से मुक्त रह सके।ज् मेडियास्टिनल सेमिनोमा के लिए कीमोथेरेपी कराने के दौरान युवराज ने यह फैसला किया कि वे कीमो के दौरान अपने शरीर की प्रतिक्रिया को नियमित ट्विटर पर शेयर करेंगे। इसके लिए उन्होंने वीडियो डायरी भी बनाई। अपने बाल उडऩे, खाना न पचने संबंधी तमाम बातों और दवा के असर को लोगों से शेयर किया। तब से अब तक यूवीकेन ट्रस्ट के जरिए वे कैंसर पीडि़तों के लिए काम कर रहे हैं।
मॉडल से अभिनेत्री बनी लीसा रे को नूसरत फतेह अली खां के एलबम आफरीन आफरीन से प्रसिद्धि मिली। २००९ में उन्हें मल्टीपल मायलोमा से ग्रस्त पाया गया। दस महीने बाद ही उन्होंने खुद को इस बीमारी से स्टेम सेल ट्रांसप्लांट द्वारा ठीक कर लिया। इस बीमारी से उबरने के बाद लीसा रे ने जेसोन देहनी से विवाह कर ये साबित किया कि कैंसर के मरीज भी सामान्य जीवन जी सकते हैं। आज वे अपने ब्लॉग द यलो डायरीज के माध्यम से कैंसर के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए लिखती हैं। उनका कहना है कि इस बीमारी से ग्रस्त मरीजों के लिए बीमारी पर होने वाले खर्च और आम लोगों के बीच जिंदगी की जददेजहद तो मुश्किल है ही साथ ही शारीरिक कमजोरी से जूझ पाना भी तकलीफदायक होता है। ऐसे में जो मरीज कैंसर के नाम से घबराकर जिंदगी से हार मान लेते हैं, उनके लिए मैं काम रही हूं। मैंने दिल्ली स्थित शिलादित्य सेनगुप्ता की संस्था के साथ काम करना शुरू किया जो कैंसर के मरीजों के मदद करते हैं। लीजा ने कॉकटेल डिजाइनर साड़ी लाइन की शुरूआत की है जिससे मिलने वाली सारी रकम वे कैंसर पेशेंट्स की मदद करने में देती हैं।

कैंसर के उपचार के दौरान मुझे लांस आर्मस्ट्रॉन्ग से काफी प्रेरणा मिलती थी। उन्हें भी वही कैंसर था, जो मुझे था। तब लगा कि मुझे भी किताब लिखना चाहिए जो दूसरे लोगों के लिए प्रेरक हो सकती है। शुरुआत में दूसरे सेलिब्रिटी की तरह मैं भी लोगों के सामने नहीं आना चाहता था, पर जब स्थिति को स्वीकार कर लिया, तब लगा कि मुझे ऐसा करना चाहिए, जो अन्य लोगों को अपनी लड़ाई लडऩे में मदद करे। तभी मैंने किताब लिखने का निर्णय लिया।
 च्द टेस्ट ऑफ माई लाइफ फ्रॉम क्रिकेट टू कैंसर एंड बैकज् का एक अंश

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