मंगलवार, 4 मार्च 2014

दर्द-ए-मुफलिसी
मुफलिसी का दर्द क्या होता है, ये वही महसूस करते हैं जिन्होंने इस दर्द को सहा हो। ऐसे ही दर्द से गुजरे हैं समाज को सच का आईना दिखाने वाले वो साहित्यकार जिन्हें समाज की ढाल माना जाता है। पाठकों को सच का आईना दिखाने वाले इन लेखकों की दुर्दशा का पता इसी बात से चलता है कि दिन-रात कड़ी मेहनत करने के बाद जब पाठकों के समक्ष उनकी किताबें आती हैं तो उसके एवज में उन्हें इतना पैसा भी नहीं मिलता जिससे दो वक्त का गुजारा हो सके। इसी वजह से न चाहते हुए भी लेखन से अलग नौकरी करना उनकी जरूरत बन जाता है। इसी हफ्ते प्रसिद्ध साहित्यकार अमरकांत हमारे बीच में नहीं रहे। अमरकांत की तुलना गोर्की और प्रेमचंद से की जाती है। जी हां ये वही अमरकांत थे जिन्हें अपनी रचना के लिए साहित्य का वरिष्ठ सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में तो मिला लेकिन उम्र भर वे एक अच्छे घर के लिए तरसते रहे....

एक वो थे जो खुशी की तलाश में मर जाते थे, एक हम हैं जो गम-ए-जिंदगी में जिये जा रहे हैं।
मिर्जा गालिब के इस शेर ने जिंदगी में मिलने वाले हर गम को अपनी कलम के माध्यम से बयां किया। गालिब के पिता अब्दुल्ला बेग युद्ध में मारे गए। उस वक्त गालिब की उम्र पांच साल थी।
13 साल की उम्र में उनकी शादी उमराव बेगम से हुई और सात बच्चे भी पैदा हुए लेकिन उनमें से एक भी जीवित नहीं रहा। बाद में उन्होंने अपने भतीजे को गोद लिया लेकिन वो भी कम उम्र में चल बसा। उसके बाद गालिब का पीछा न कभी शराब ने छोड़ा और न ही गरीबी और बीमारी ने। जिंदगी की परेशानियां लेखक के दिल की जुबां बनकर उसके लेखन से पता चलती है। अपने लेखन में आम आदमी के संघर्ष को भाषा व अभिव्यक्ति देने वाले कथाकार अमरकांत ने अपने साहित्य में मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की समस्याओं को व्यक्त किया है। इन समस्याओं को बयां करना उनके लिए शायद इसी वजह से आसान रहा होगा क्योंकि उन्होंने खुद जिंदगी भर ऐसी ही परेशानियों का सामना किया था। अमरकांत के स्वभाव के संबंध में रवींद्र कालिया लिखते हैं- वे अत्यन्त संकोची व्यक्ति हैं। अपना हक मांंगने में भी संकोच कर जाते हैं। उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें उनके दोस्तों ने ही प्रकाशित की थीं।...एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न पड़ी थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमरकान्त ने अत्यन्त संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपये मांगे, मगर उन्हें दो टूक जवाब मिल गया,  पैसे नहीं हैं। अमरकान्तजी ने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं। सन् 1954 में अमरकान्त को हृदय रोग हो गया था। तब से वह एक जबरदस्त अनुशासन में जीने लगे। अपनी लडख़ड़ाती हुई जिन्दगी में अनियमितता नहीं आने दी। लडख़ड़ाती जिंदगी जीना देश के कई दिग्गज साहित्यकारों का नबीस ही रहा है। कहानी सम्राट प्रेमचंद के पिता पोस्ट ऑफिस में क्लर्क थे। कम उम्र में ही माता-पिता चल बसे और सौतेली मां व उनके बच्चे की जिम्मेदारी प्रेमचंद पर आ गई। जिस लड़की से शादी की उनसे उनकी अनबन ही रही, आखिर में तंग आकर 1899 में उन्होंने तलाक ले लिया। 1906 में शिवरानी देवी से उन्होंने विवाह किया। 1899 में गांव छोड़कर चूनार के स्कूल में स्कूल मास्टर बन गए।
इस छोटे से गांव में नौकरी करते हुए जो थोड़ा बहुत पैसा मिलता था उससे सौतेली मां, उनके बच्चों और खुद अपने परिवार का पालन-पोषण करना उनके लिए बहुत मुश्किल था। पैसों की तंगी उस वक्त भी रही जब उन्होंने परेशानियों से तंग आकर चूनार गांव छोड़ दिया और रही सही नौकरी भी गई। प्रेमचंद ने 1936 में पहली आल इंडिया कांफ्रेंस लेखक संघ के रूप में प्रारंभ की थी। हर चुनौती को स्वीकार करते हुए भी जीवन के अंतिम समय तक उन्होंने लिखना जारी रखा। उनके द्वारा लिखित उपन्यास मंगलसूत्र अधूरा ही रहा क्योंकि उसी दौरान 8 अक्टूबर 1936 को वे दुनिया से चले गए। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बिना हिंदी कविता ही नहीं, बल्कि भारतीय कविता की यात्रा भी अधूरी है। गालिब के बाद निराला भारतीय कविता के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं।   पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को बचपन में ही हो गया। उन्होंने दलित-शोषित किसानों के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। उनका आखिरी समय इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मोहल्ले में स्थित  एक कमरे के घर में उनकी मृत्यु हुई। समाज को सच का आइना दिखाने वाले अधिकांश साहित्यकारों के सितारे गॢदश में ही रहते हैं। होशंगाबाद में जन्मे हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं से समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्टï किया जिनका सामना पैसों की तंगी और छोटी सी नौकरी के चलते उन्हें हमेशा करना पड़ा।


हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी लेखकों को इतनी रॉयल्टी मिलती है उसी के बल पर वे अपनी आजीविका चला सकते हैं लेकिन एक हिंदी लेखक ये कभी नहीं सोच सकता कि सिर्फ लेखन के माध्यम से वे परिवार के साथ बिना नौकरी किए रह सकता है। वो भी तब जब लेखकों के लेखन स्तर में कहीं कमी नहीं आई है लेकिन आर्थिक दृष्टि से लेखकों के लिए आज भी वही दयनीय स्थिति बनी हुई है जो निराला, मुक्तिबोध जैसे महान लेखकों के साथ थी। कई बार न चाहते हुए भी साहित्यकारों को लेखन से अलग नौकरी करना पड़ती है ताकि परिवार का खर्च चल सकें।
उद्यन वाजपेयी

लेखकों को न तो प्रकाशक रॉयल्टी देते हैं और न ही किताबें इतनी संख्या में बिकती हैं जिससे अच्छी कमाई की उम्मीद हो। जो पैसा मिलता है, वो टाइपिंग में चला जाता है। सरकार की ओर से लेखकों के लिए कोई योजना नहीं है। जो वरिष्ठ सम्मान उन्हें मिलते भी हैं तो वह तब मिलते हैं जब उनकी उम्र साठ-सत्तर के करीब होती है। ऐसे कितने लेखक हैं जिन्हें अनुदान राशि मिलती है?
उर्मिला शिरीष
अमरकांत जैसे देश के महान साहित्यकार अपने जीवन के अंतिम समय तक मित्र प्रकाशन में बहुत कम तनख्वाह में नौकरी करते रहे। भारत में स्वतंत्र लेखन करने वाले लेखकों के लिए परिवार की जिम्मेदारी उठाना मुश्किल है। आज जरूरत इस बात की है कि लेखकों को रॉयल्टी मिलने के नियम बनाए जाएं। कई कॉलेज की किताबों में उनकी रचनाएं प्रकाशित हैं लेकिन इन रचनाओं का पैसा रचनाकारों को कभी नहीं मिलता। हमारे देश में सांस्कृतिक केंद्रों की कमी नहीं है लेकिन कहीं भी बुक कार्नर नहीं है। जबकि हर सांस्कृतिक केंद्र में कम से कम एक बुक कॉर्नर हो जहां से साहित्य प्रेमी अपनी मनपसंद किताब खरीद सकें।
राजेश जोशी

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