बुधवार, 19 मार्च 2014

देखो उड़ा रे गुलाल

रंग-बिरंगा हुआ भोपाल

रंग-रंगिली होली में तन और मन को रंगने की बात हर बार होती है लेकिन इस साल की होली में अगर शहर के विभिन्न स्थानों पर होली का रंग चढ़ा दिया जाए तो क्या हो। शहर के मशहूर चित्रकार होली के हर रंग को हमेशा अपने करीब पाते हैं। उनकी कोशिश होती है कि हर रंग से समाज में फैली बुराइयों के प्रति लोगों को जागरूक करें। फिर बात अगर होली की हो तो उनकी नजरों के सामने ऐसे कई स्थान उभर आते हैं जिन्हें वे अपनी कलाकारी से विशिष्ट रंग देने की तमन्ना रखते हैं.....क्षमा कुलश्रेष्ठ
 क्षमा को प्रभावित करती हैं शहर की वो सारी दीवारें जिन्हें चित्रकारी के माध्यम से जगह-जगह सजाया गया है। इससे दीवारों की खूबसूरती बढ़ती है। शाहपुरा झील के आसपास की दीवारों को शांत रंगों से सजाने की जरूरत है। इन चित्रों के माध्यम से ऐसे संदेश देने चाहिए जो लोगों को प्रकृति और पानी बचाने के प्रति जागरूक करें।
ऐसे रंग बिखेरो
होली पर सबसे बुरा तब लगता है जब जिसे होली खेलना पसंद नहीं है उन्हें भी रंग लगा दिया जाता है। इस त्योहार पर सबसे पहले लोगों की भावनाओं का ध्यान रखा जाना चाहिए। जिंदगी को रंगीन बनाने के लिए अपनी आत्मा से नकारात्मकता को दूर करना सबसे पहला काम होना चाहिए। फिर देखिए हर दिन रंगीन हो जाएगा।
बिखेरना ही है तो मुस्कराहटों का रंग बिखेरो
फिर देखो सारा जीवन इंद्रधनुष हो जाएगा।।

रंजीत अरोड़ा
रंजीत एब्सेट्रेक्ट पेंटिंग बनाते हैं और मंतशा आर्ट सोसायटी के  अध्यक्ष हैं जिसके माध्यम से युवा चित्रकारों को नए अवसर प्रदान करते हैं। अगर उन्हें अवसर मिले तो वे वन विहार को अपनी चित्रकारी के माध्यम से सजाएंगे। वन विहार से झील का किनारा देखने में बहुत सुंदर लगता है। वे चाहते हैं कि यदि प्रशासन इजाजत दे तो यहां कैंप लगाकर अन्य चित्रकारों के साथ पेंटिंग करें।

गुलाब से होली का आनंद
भोपाल गंगा जमुनी तहजीब की पहचान है। यहां मनाया जाने वाला हर त्योहार खास होता है। उनके कुछ दोस्तों ने गुलाब की पत्तियों से होली खेलने की पहल की है। इससे पानी की बचत होगी और होली खेलने का आनंद भी बना रहेगा। ऐसा ही प्रयास सूखी होली या फूलों की होली के माध्यम से सभी को करना चाहिए।
साजिद प्रेमी

न्यू मार्केट में टॉप एन टाउन वाली लाइन में या वीआईपी रोड के सामने वाली दीवारों को साजिद अपनी चित्रकारी से नया रूप देना चाहते हैं। शहर के बाहर से आने वाले सभी वीआईपी जब यहां आते हैं तो इसी रोड से गुजरते हैं इसलिए यहां की दीवारों को सुंदर बनाने की जरूरत है। साथ ही गौहर महल में चित्रकारी का अपना मजा है तो ताजमहल एक ऐसी जगह है जहां पेंटर्स को काम करना चाहिए ताकि भोपाल की इस धरोहर के बारे में लोगों को पता चल सके।
सादगी से मनाएं
हर्ष और उल्लास के साथ होली का आनंद लें। सादगी के साथ इसे मनाने से त्योहार का मजा बढ़ जाता है।
देवीलाल पाटीदार
भोपाल की बड़ी झील में पानी के रूप में जीवन है। वहां लोग रहें या न रहें लेकिन झील हमेशा जीवित रहते हुए शहर की खूबसूरती बढ़ाती है। यंू तो इसे निखारने के लिए समय-समय पर काम किए जा रहे हैं लेकिन इसके आस-पास अगर चित्रकारी करने का मौका मिले तो इससे झील की सुंदरता में निखार आएगा। यहां ऐसी पेंटिंग की जानी चाहिए जिस पर मौसम का असर न हो जैसे म्यूरल्स। वाटर कलर से की गई पेंटिंग इस जगह के लिए उपयुक्त है।
स्रोत खराब न हो
होली ही एकमात्र ऐसा त्योहार है जिसे मनाने के लिए ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं होती। होली पर पानी के स्रोत खराब न हों, इस बात का ध्यान सभी को रखना चाहिए।
मंजुषा गांगुली

चित्रकार का रंगों से गहरा नाता होता है जो उसे हर वक्त ताजगी और ऊर्जा प्रदान करते हैं। शहर की सुंदरता में चार चांद लगाने की बात हो तो पालीटेक्निक चौराहे के आस-पास की दीवारों पर जो चित्रकारी की गई है, वो अगर किसी चित्रकार से कराई जाए तो देखने में ज्यादा अच्छा लगेगा। इसके अलावा भारत भवन कला केंद्र के रूप में विख्यात है जिसे मंजुषा गांगुली अपने रंगों से सजाना चाहती हैं।

याद है कोलकाता की होली
कोलकाता में गुलाल से होली खेलने की परंपरा है। वहां पलाश के फूलों से रंग बनाए जाते हैं और उनसे होली खेली जाती है। रवींद्रनाथ टैगोर के गीतों पर ढोल मंजीरे के साथ किया जाने वाला नृत्य लोगों को हमेशा याद रहता है। गीले रंगों वाली होली खेलने से होने वाले नुकसान को देखते हुए सूखी होली खेलें और इस त्योहार का पूरा आनंद लें।
अर्चना यादव

अगर हम बीएचईएल की बात करें तो यहां के शांत माहौल में चित्रकारों को काम करना चाहिए। इस क्षेत्र की खूबसूरती को बढ़ाने में पेंटर्स की खास भूमिका होनी चाहिए। विशेष तौर से सारंगपाणी झील के आसपास चित्रकारी करने की तमन्ना अर्चना की भी है। उनके अनुसार यह एक ऐसी झील है जिसके बारे में शहरवासियों को कम ही मालूम है। यहां अगर चित्रकारी करने का मौका मिले तो वे वाल पेंटिंग और पार्ट पीसेस से दीवारों की सुंदरता बढ़ाना चाहेेंगी।

ऐसी घटनाएं न हों
होली के आस-पास अपराधों की संख्या बढ़ जाती है। खुशी के अवसर पर इस तरह की घटनाएं नहीं होना चाहिए।
अखिलेश
अखिलेश को लगता है कि सिर्फ पेंटिंग से नहीं बल्कि लैंडस्केपिंग के माध्यम से न्यू मार्केट की सुंदरता बढ़ाई जा सकती हैं। इसी तरह का काम मैं जुमेराती और गौहर महल में भी करना चाहता हूं।
आनंद लें
होली खुशियों और उम्मीदों का तैयार है इसका भरपूर आनंद सभी को लें।


मंगलवार, 4 मार्च 2014

दर्द-ए-मुफलिसी
मुफलिसी का दर्द क्या होता है, ये वही महसूस करते हैं जिन्होंने इस दर्द को सहा हो। ऐसे ही दर्द से गुजरे हैं समाज को सच का आईना दिखाने वाले वो साहित्यकार जिन्हें समाज की ढाल माना जाता है। पाठकों को सच का आईना दिखाने वाले इन लेखकों की दुर्दशा का पता इसी बात से चलता है कि दिन-रात कड़ी मेहनत करने के बाद जब पाठकों के समक्ष उनकी किताबें आती हैं तो उसके एवज में उन्हें इतना पैसा भी नहीं मिलता जिससे दो वक्त का गुजारा हो सके। इसी वजह से न चाहते हुए भी लेखन से अलग नौकरी करना उनकी जरूरत बन जाता है। इसी हफ्ते प्रसिद्ध साहित्यकार अमरकांत हमारे बीच में नहीं रहे। अमरकांत की तुलना गोर्की और प्रेमचंद से की जाती है। जी हां ये वही अमरकांत थे जिन्हें अपनी रचना के लिए साहित्य का वरिष्ठ सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में तो मिला लेकिन उम्र भर वे एक अच्छे घर के लिए तरसते रहे....

एक वो थे जो खुशी की तलाश में मर जाते थे, एक हम हैं जो गम-ए-जिंदगी में जिये जा रहे हैं।
मिर्जा गालिब के इस शेर ने जिंदगी में मिलने वाले हर गम को अपनी कलम के माध्यम से बयां किया। गालिब के पिता अब्दुल्ला बेग युद्ध में मारे गए। उस वक्त गालिब की उम्र पांच साल थी।
13 साल की उम्र में उनकी शादी उमराव बेगम से हुई और सात बच्चे भी पैदा हुए लेकिन उनमें से एक भी जीवित नहीं रहा। बाद में उन्होंने अपने भतीजे को गोद लिया लेकिन वो भी कम उम्र में चल बसा। उसके बाद गालिब का पीछा न कभी शराब ने छोड़ा और न ही गरीबी और बीमारी ने। जिंदगी की परेशानियां लेखक के दिल की जुबां बनकर उसके लेखन से पता चलती है। अपने लेखन में आम आदमी के संघर्ष को भाषा व अभिव्यक्ति देने वाले कथाकार अमरकांत ने अपने साहित्य में मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की समस्याओं को व्यक्त किया है। इन समस्याओं को बयां करना उनके लिए शायद इसी वजह से आसान रहा होगा क्योंकि उन्होंने खुद जिंदगी भर ऐसी ही परेशानियों का सामना किया था। अमरकांत के स्वभाव के संबंध में रवींद्र कालिया लिखते हैं- वे अत्यन्त संकोची व्यक्ति हैं। अपना हक मांंगने में भी संकोच कर जाते हैं। उनकी प्रारम्भिक पुस्तकें उनके दोस्तों ने ही प्रकाशित की थीं।...एक बार बेकारी के दिनों में उन्हें पैसे की सख्त जरूरत थी, पत्नी मरणासन्न पड़ी थीं। ऐसी विषम परिस्थिति में प्रकाशक से ही सहायता की अपेक्षा की जा सकती थी। बच्चे छोटे थे। अमरकान्त ने अत्यन्त संकोच, मजबूरी और असमर्थता में मित्र प्रकाशक से रॉयल्टी के कुछ रुपये मांगे, मगर उन्हें दो टूक जवाब मिल गया,  पैसे नहीं हैं। अमरकान्तजी ने सब्र कर लिया और एक बेसहारा मनुष्य जितनी मुसीबतें झेल सकता था, चुपचाप झेल लीं। सन् 1954 में अमरकान्त को हृदय रोग हो गया था। तब से वह एक जबरदस्त अनुशासन में जीने लगे। अपनी लडख़ड़ाती हुई जिन्दगी में अनियमितता नहीं आने दी। लडख़ड़ाती जिंदगी जीना देश के कई दिग्गज साहित्यकारों का नबीस ही रहा है। कहानी सम्राट प्रेमचंद के पिता पोस्ट ऑफिस में क्लर्क थे। कम उम्र में ही माता-पिता चल बसे और सौतेली मां व उनके बच्चे की जिम्मेदारी प्रेमचंद पर आ गई। जिस लड़की से शादी की उनसे उनकी अनबन ही रही, आखिर में तंग आकर 1899 में उन्होंने तलाक ले लिया। 1906 में शिवरानी देवी से उन्होंने विवाह किया। 1899 में गांव छोड़कर चूनार के स्कूल में स्कूल मास्टर बन गए।
इस छोटे से गांव में नौकरी करते हुए जो थोड़ा बहुत पैसा मिलता था उससे सौतेली मां, उनके बच्चों और खुद अपने परिवार का पालन-पोषण करना उनके लिए बहुत मुश्किल था। पैसों की तंगी उस वक्त भी रही जब उन्होंने परेशानियों से तंग आकर चूनार गांव छोड़ दिया और रही सही नौकरी भी गई। प्रेमचंद ने 1936 में पहली आल इंडिया कांफ्रेंस लेखक संघ के रूप में प्रारंभ की थी। हर चुनौती को स्वीकार करते हुए भी जीवन के अंतिम समय तक उन्होंने लिखना जारी रखा। उनके द्वारा लिखित उपन्यास मंगलसूत्र अधूरा ही रहा क्योंकि उसी दौरान 8 अक्टूबर 1936 को वे दुनिया से चले गए। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बिना हिंदी कविता ही नहीं, बल्कि भारतीय कविता की यात्रा भी अधूरी है। गालिब के बाद निराला भारतीय कविता के सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं।   पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को बचपन में ही हो गया। उन्होंने दलित-शोषित किसानों के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। उनका आखिरी समय इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मोहल्ले में स्थित  एक कमरे के घर में उनकी मृत्यु हुई। समाज को सच का आइना दिखाने वाले अधिकांश साहित्यकारों के सितारे गॢदश में ही रहते हैं। होशंगाबाद में जन्मे हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं से समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्टï किया जिनका सामना पैसों की तंगी और छोटी सी नौकरी के चलते उन्हें हमेशा करना पड़ा।


हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी लेखकों को इतनी रॉयल्टी मिलती है उसी के बल पर वे अपनी आजीविका चला सकते हैं लेकिन एक हिंदी लेखक ये कभी नहीं सोच सकता कि सिर्फ लेखन के माध्यम से वे परिवार के साथ बिना नौकरी किए रह सकता है। वो भी तब जब लेखकों के लेखन स्तर में कहीं कमी नहीं आई है लेकिन आर्थिक दृष्टि से लेखकों के लिए आज भी वही दयनीय स्थिति बनी हुई है जो निराला, मुक्तिबोध जैसे महान लेखकों के साथ थी। कई बार न चाहते हुए भी साहित्यकारों को लेखन से अलग नौकरी करना पड़ती है ताकि परिवार का खर्च चल सकें।
उद्यन वाजपेयी

लेखकों को न तो प्रकाशक रॉयल्टी देते हैं और न ही किताबें इतनी संख्या में बिकती हैं जिससे अच्छी कमाई की उम्मीद हो। जो पैसा मिलता है, वो टाइपिंग में चला जाता है। सरकार की ओर से लेखकों के लिए कोई योजना नहीं है। जो वरिष्ठ सम्मान उन्हें मिलते भी हैं तो वह तब मिलते हैं जब उनकी उम्र साठ-सत्तर के करीब होती है। ऐसे कितने लेखक हैं जिन्हें अनुदान राशि मिलती है?
उर्मिला शिरीष
अमरकांत जैसे देश के महान साहित्यकार अपने जीवन के अंतिम समय तक मित्र प्रकाशन में बहुत कम तनख्वाह में नौकरी करते रहे। भारत में स्वतंत्र लेखन करने वाले लेखकों के लिए परिवार की जिम्मेदारी उठाना मुश्किल है। आज जरूरत इस बात की है कि लेखकों को रॉयल्टी मिलने के नियम बनाए जाएं। कई कॉलेज की किताबों में उनकी रचनाएं प्रकाशित हैं लेकिन इन रचनाओं का पैसा रचनाकारों को कभी नहीं मिलता। हमारे देश में सांस्कृतिक केंद्रों की कमी नहीं है लेकिन कहीं भी बुक कार्नर नहीं है। जबकि हर सांस्कृतिक केंद्र में कम से कम एक बुक कॉर्नर हो जहां से साहित्य प्रेमी अपनी मनपसंद किताब खरीद सकें।
राजेश जोशी

हसरतें और भी हैं


फिलहाल हम अंतर्राष्ट्रीय महिला सप्ताह मना रहे हैं और इस अवसर पर ऐसी कई चुनौतियों की बात की जानी चाहिए जिनका सामना हर तरह से महिलाएं कर रही हैं। यहां यह समझना भी जरूरी है कि चंद महिलाओं की भलाई से पूरे नारी समाज का कल्याण नहीं हो सकता। अगर महिलाओं को सशक्त करना है तो पहले समाज को जागरूक करना होगा। जागरूकता के प्रति प्रशासनिक अधिकारी तो अपना काम कर ही रहे हैं लेकिन उनकी पत्नियां भी समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियां पूरी निष्ठा के साथ निभा रही हैं। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को निभाने की हसरतें ही इन्हें अन्य महिलाओं के लिए मिसाल साबित करती हैं। इस अंक की कवर स्टोरी ऐसी ही महिलाओं पर आधारित है जिनके योगदान से न सिर्फ महिलाओं को सीखने का मौका मिल रहा है, बल्कि वे पूरे आत्मविश्वास के साथ नई इबारत की नींव रख रही हैं....
सीमा रायजादा
सीमा रिटायर्ड इलेक्शन कमिश्नर अजीत रायजादा की पत्नी हैं। सरोजिनी नायडू कन्या महाविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्रोफेसर डॉ. सीमा रायजादा ने दो साल पहले क्लब लिटरेटी की शुरुआत की थी। इस क्लब के बारे में सीमा कहती हैं मैं कॉलेज में विद्यार्थियों को साहित्य पढ़ाती हूं। साहित्य के प्रति इन विद्यार्थियों के अलावा अन्य लोगों में जागरूकता पैदा हो, इस उद्देश्य से मैंने इस क्लब की शुरुआत की। ये क्लब साहित्यिक विचारों को मंच पर लाने का एक अवसर है जहां न सिर्फ भारतीय साहित्यकारों, बल्कि विश्व के प्रसिद्ध साहित्यकारों के विचार आम लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाता है। इसके अलावा पैनल डिस्कशन, बुक रीडिंग और बुक रिव्यू के माध्यम से नए साहित्य के बारे में जानकारी तो दी ही जाती है, साथ ही स्कूल के बच्चों की प्रतिभा लोगों के सामने लाने का प्रयास भी होता है। क्लब ने पिछले दो साल में नौ इवेंट्स किए हैं।
आत्मविश्वास बढ़ाएं
महिलाओं में योग्यता की कमी नहीं है। अगर उन्हें प्रतिभा दिखाने का मौका मिले तो वे अपना लोहा मनवा सकती हैं। कामकाजी महिलाओं के अलावा घर में रहने वाली महिलाएं भी पूरे दिन मेहनत करती हैं लेकिन उन्हें सम्मान नहीं मिल पाता। जरूरत इस बात की है कि महिलाएं अपना आत्मविश्वास बढ़ाएं। साथ ही लड़कियों को परंपरा से हटकर नए क्षेत्र में कैरियर बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
अपर्णा लाड़
इनके पति सुधीर लाड़ बैतूल में एसपी के पद पर कार्यरत हैं। अपर्णा ने एक साल पहले नर्मदा कॉलेज ऑफ फाइन आट्र्स की शुरुआत की है। अपर्णा कहती हैं, मेरे पति की पोस्टिंग जहां भी रही, वहां मैं बच्चों को फाइन आट्र्स सिखाती थी। बच्चों की कला के प्रति रुझान देखकर मैंने इस कॉलेज की स्थापना करने का विचार किया ताकि उन्हें इस कला को सीखने के बाद उसकी डिग्री भी मिल सके। उनके पास सर्टिफिकेट हो जिससे उन्हें रोजगार के अवसर मिलेें। किसी भी कला को सीखने के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं होता इसलिए उन्होंने अपने कॉलेज में यह प्रावधान रखा है कि हर उम्र के लोग यहां आकर पढ़ाई कर सकते हैं। अपर्णा मानसिक रूप से विक्षिप्त बच्चों को भी अपने कॉलेज में फाइन आर्ट की शिक्षा देती हैं।
संस्कारों को न छोड़ेें
अपने संस्कारों को हमेशा याद रखेें। यह सोच अगर अभिभावकों में होगी तो बच्चे स्वयं अच्छे संस्कारों को अपनाएंगे। रही बात नारी स्वतंत्रता की तो इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने से बचें। महिलाओं के लिए जितना जरूरी हमारी परंपराओं को अगली पीढ़ी तक पहुंचाना और उन्हें बनाए रखना है, उतना ही जरूरी उनके लिए संस्कारों की रक्षा करना भी है।
शिल्पी अगनानी
शिल्पी मनोहर अगनानी की पत्नी हैं। मनोहर  कमिश्नर फूड एंड सिविल सप्लाइज के पद पर  हैं।
जिस परिवार में एक बेटी है, उन परिवारों के लिए बिटिया संस्था की शुरुआत की गई है। चार साल पहले स्थापित इस संस्था की शाखाएं भोपाल के अलावा ग्वालियर और जबलपुर में हैं। इस संस्था को आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं शिल्पी अगनानी। शिल्पी के शब्दों में, हमारे समाज में लड़का-लड़की के बीच आज भी भेदभाव किया जाता है। जिन परिवारों में पहला बच्चा लड़की हो और वे दूसरा बच्चा न चाहते हों, उन परिवारों को प्रोत्साहित करने के लिए इस संस्था की स्थापना की गई है। इस संस्था द्वारा समय-समय पर ऐसे कार्यक्रम किए जाते हैं जिससे बेटी के माता-पिता उन्हें लड़कों के समान अवसर देें और अच्छी परवरिश कर सकें। इसके अलावा यह संस्था कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ काम करती है।
सम्मान करना सीखें
अगर हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं तो सबसे पहले महिलाओं को अपना सम्मान खुद करना सीखना होगा। कई महिलाएं परिवार में सबका ध्यान रखती हैं लेकिन जब बात खुद उनका ख्याल रखने की हो तो वे लापरवाह हो जाती हैं। जितना जरूरी औरत के लिए अपना सम्मान करना है, उतना ही हर औरत का सम्मान करना भी। बुरा तो तब लगता है जब एक औरत दूसरी औरत के लिए द्वेष की भावना रखती है। अगर महिलाएं काम करने से पहले ही यह सोच लें कि कुछ नहीं कर सकती तो कुछ भी नहीं होगा। सबसे पहले अपनी शक्ति को पहचानें और फिर काम पूरा करने में जुट जाएं।
बंदिता श्रीवास्तव
जनसंपर्क कार्यालय के कमिश्नर राकेश कुमार श्रीवास्तव की पत्नी हैं बंदिता श्रीवास्तव। लोक चित्रकला और ट्राइबल आर्ट को रंगबिरंगे रंगों द्वारा कैनवास पर उतारने की कला में निपुण हैं बंदिता। वे पिछले पंद्रह सालों से इन कलाओं के प्रति समर्पित हैं। बंदिता के अनुसार मैंने पंद्रह साल पहले ग्वालियर में रहते हुए इस कला को सीखने की शुरुआत की थी। इस दिशा में काम करते हुए बंदिता ने स्टोन पर काम करने वाले कई कलाकारों को लोक कलाओं की शिक्षा दी। आज उन कलाकारों की आजीविका का प्रमुख साधन यही कला है। बंदिता को इस बात की खुशी है कि उनके प्रयासों से इन कलाकारों को रोजगार मिला। वे चाहती हैं लोक कलाओं के प्रति लोगों को प्रोत्साहन मिलना जरूरी है। भारतीय पारंपरिक लोक कलाओं को सहेजने की जिम्मेदारी हमारी ही है। इसके प्रति लोगों को जागरूक करने की जरूरत है।
नैतिक शिक्षा जरूरी है
जीवन के संघर्ष में महिलाओं के लिए सबसे जरूरी है साहस के साथ उन परिस्थितियों का सामना करना। इन गुणों का विकास करने के लिए पारिवारिक पृष्ठभूमि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जिन परिवारों में लड़कियों को बचपन से हर हालात का हिम्मत से सामना करना सिखाया जाता है, वहां मुश्किलों से पार पाना वे खुद सीख जाती हैं।