आपकी पहल बचाएगी
पर्यावरण
हम अगर पर्यावरण को बचाने की बात करें तो इसकी शुरूआत सबसे पहले हमें अपने घर और फिर समाज से करना होगी। इस बात को हमारे देश में रहने वाले वे पर्यावरणविद बहुत अच्छी तरह जानते हैं जिन्होंने छोटी सी पहल के बल पर देश और फिर दुनिया के पर्यावरण की दिशा बदलने का बीड़ा उठाया है। आज उन्हीं के प्रयासों ने ये साबित कर दिया है कि एक कोशिश भी पर्यावरण को बचाने की दिशा में बेहद कारगर साबित हो सकती है....
मेनका गांधी
राजनीति के अलावा मेनका गांधी पत्रकार भी रही हैं और एक पत्रिका की संपादक भी रह चुकी हैं। उन्होंने कानून और पशुओं पर आधारित बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं। भारत में पशु-अधिकारों के प्रश्न को मुख्यधारा में लाने का श्रेय मेनका गांधी को ही जाता है। सन 1992 में उन्होंने पीपल फार अनिमल्स नामक एक गैर सरकारी संगठन आरम्भ किया जो पूरे भारत में (पशु) आश्रय चलाता है। उन्हें बेजुबान पशुओं पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जाना जाता है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
हमारे समाज में होने वाली निर्दयता की शुरूआत सबसे पहले घर से तब होती है जब घरों में जानवरों को मारा जाता है या उनकी सही देखभाल नहीं की जाती। जानवरों पर आत्याचार कर हम अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं जिसे बच्चे देखते हैं और वो भी जानवरों के साथ घर के बड़ों की तरह अन्याय करने लगते हैं। अगर आप जानवरों के साथ हिंसापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं तो समाज में शांति की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
वंदना शिवा
वंदना शिवा एक दार्शनिक और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं जिन्होंने पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी कई पुस्तकों की रचना की है। चिपको आंदोलन में गौरा देवी के साथ-साथ वंदना शिवा ने पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पेड़़ों के चारों तरफ मानव चक्र तैयार करने की पद्धति को अपनाया। वैश्वीकरण के मॉडल को वंदना शिवा ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया और पर्यावरण संरक्षण को अंतर्राष्ट्रीय फोरम का मुद्दा बनाया। उन्होंने कृषि और खाद्य पदार्थ के व्यवहार एवं प्रतिमान में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष किया है। सबसे अहम बात है कि शिवा ने जैव-नीतिशास्त्र के मुद्दे को उठाया जो तारीफ के काबिल है। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की बात की है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
एक तरफ तो आप बद्रीनाथ, और केदारनाथ पूजा करने जा रहे हैं, पर दूसरी ओर ऐसी ही पवित्र जगह प्रदूषण फैला रहे हैं। अगर हम लद्दाख की बात करें तो वहां की सरकार ने यह कानून बनाया है कि सैलानी प्लास्टिक का कूड़ा अपने साथ वापस ले कर जाएंगे, वे उसे कहीं छोड़ नहीं सकते। अगर इसी तरह की नीतियां हर जगह बनने लगें तो कूड़ा करकट देखने को ही नहीं मिलेगा।
सुनीता नारायण
सुनीता नारायण की गिनती उन महिलाओं में होती है, जो वैज्ञानिक तथ्यों के लिए किसी के खिलाफ भी मोर्चा खोल सकती हैं। पेप्सी और कोका कोला में खतरनाक कीटनाशकों की उपस्थिति की बात कहकर उन्होंने न केवल भारतीय राजनीति बल्कि कारपोरेट जगत में भी भूचाल ला दिया था। इसी तरह बड़ी कंपनियों के शहद में एंटीबायोटिक होने की बात कहकर सनसनी फैला दी । अनुसंधान परियोजना और सार्वजनिक अभियानों की शृंखला में सुनीता ने हमेशा सक्रिय भूमिका निभाई है। सुनीता की महान उपलब्धियों की कारण भारत सरकार ने 2005 में उन्हें 'पदमश्रीÓ अवार्ड से सम्मानित किया था।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
सुनीता नारायण के शब्दों में पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।
अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र जाने माने गांधीवादी पर्यावरणविद् हैं। पर्यावरण के लिए वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण का कोई विभाग नहीं खुला था। बगैर बजट के मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस बारीकी से खोज-खबर ली है, वह आज भी करोड़ों रुपए बजट वाले विभागों और परियोजनाओं के लिए संभव नहीं हो पाया है। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया है। वे 2001 से दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। उनकी पुस्तक आज भी खारे हैं तालाब, ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई जिसकी 1 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
अनुपम मिश्र कहते हैं हर युग का एक एजेंडा होता है, इस युग में विकास एजेंडा है, जिसमें खेती शब्द कहीं नहीं है। इस युग में विकास का मतलब है बड़ी-बड़ी बिल्डिंग। प्राकृतिक संसाधनों को रुपए में कैसे बदलें, कोयला बिक जाए और लौह अयस्क बाहर बिक जाए। आजकल सारी पार्टियों का एजेंडा एक है। देश का विकास तुरंत करना। हम प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से विकास करना चाहते हैं पर यह क्यों नहीं समझते कि जब कृषि का विकास होगा ही नहीं तो मानव जाति का विकास कैसे संभव है।
माइक पांडे
प्रसिद्ध पर्यावरणविद माइक पांडे महज जंगली जीवन पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकार ही नहीं हैं बल्कि वे एक एनजीओ के साथ मिलक र लड़कियों और उनके माता-पिता के लिए सलाहकार का काम भी करते हैं। इसके अलावा उन्होंने साबरमती आश्रम में न्यूरोपैथी की शिक्षा भी ली है और होम्योपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रशिक्षण भी हासिल किया है ताकि वे जिन आदिवासी लोगों के साथ जंगल में काम करते हैं, उनके बीमार पडऩे पर उनकी मदद कर सकें। माइक पांडे की कोशिशों की वजह से जंगली जानवरों की कई प्रजातियों को फायदा मिला है। भारतीय समुद्र में व्हेल शार्क को फिल्माने के लिए उन्हें कई पुरस्कारों साहित तीन बार प्रतिष्ठित ग्रीन ऑस्कर सम्मान प्राप्त है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
भारतवासियों की विडंबना यह है कि आज पर्यावरण की बिगड़ती हुई भयावह स्थिति को देखने के बाद भी वे हवा और पानी को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कैसी प्रगति की ओर बढ़ते जा रहे है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब हम नदियों को आपस में जोड़ेंगे तो एक नदी का जहरीला पानी दूसरी नदी में भी जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि कोई नदी सूख जाए। अच्छा तो यह होगा कि इन्हीं पैसों को खर्च कर परंपरागत स्त्रोतों को फिर से जिंदा किया जाए। क्या यह सही नहीं होगा कि नदियों को आपस में जोडऩे के अलावा दूसरे विकल्प तलाशे जाएं? जरूरत तो सिर्फ इच्छाशक्ति की है।
एम वाय योगनाथन
पर्यावरणविद के रूप में एम वाय योगनाथन की कहानी बहुत दिलचस्प है। योगनाथान कोयंबटूर के ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन में कंडक्टर का काम करते थे। उन्हे पढऩा लिखना भी नहीं आता था लेकिन फिर भी पेड़ों का महत्व वे समझते थे। धीरे धीरे उन्होंने पेड़ लगाने की शुरूआत की। पिछले छब्बीस सालों में वे लगभग 38,000 पेड़ लगा चुके हैं। योगनाथन को लगता है कि उनका अशिक्षित होना पर्यावरण को बचाने की राह में कहीं भी रूकावट नहीं रहा। आज वे तमिलनाडु के विभिन्न स्कूलों में विद्यार्थियों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
जब मैं स्कूल में बच्चों को वृक्षारोपण का महत्व समझाता हूं तो वे खुद भी पौधे लगाना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें सिर्फ समझाने से काम नहीं चलता बल्कि मैं खुद उनके साथ मिलकर वृक्षारोपण करता हूं। सच मानिए पर्यावरण को बचाने के लिए किया जाने वाला वृक्षारोपण बहुत ही आसान काम है। बस ऐसे पौधों को चुनें जिन्हें विकसित होने में कम देखभाल की जरूरत पड़े।
पर्यावरण
हम अगर पर्यावरण को बचाने की बात करें तो इसकी शुरूआत सबसे पहले हमें अपने घर और फिर समाज से करना होगी। इस बात को हमारे देश में रहने वाले वे पर्यावरणविद बहुत अच्छी तरह जानते हैं जिन्होंने छोटी सी पहल के बल पर देश और फिर दुनिया के पर्यावरण की दिशा बदलने का बीड़ा उठाया है। आज उन्हीं के प्रयासों ने ये साबित कर दिया है कि एक कोशिश भी पर्यावरण को बचाने की दिशा में बेहद कारगर साबित हो सकती है....
मेनका गांधी
राजनीति के अलावा मेनका गांधी पत्रकार भी रही हैं और एक पत्रिका की संपादक भी रह चुकी हैं। उन्होंने कानून और पशुओं पर आधारित बहुत-सी पुस्तकें लिखी हैं। भारत में पशु-अधिकारों के प्रश्न को मुख्यधारा में लाने का श्रेय मेनका गांधी को ही जाता है। सन 1992 में उन्होंने पीपल फार अनिमल्स नामक एक गैर सरकारी संगठन आरम्भ किया जो पूरे भारत में (पशु) आश्रय चलाता है। उन्हें बेजुबान पशुओं पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए जाना जाता है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
हमारे समाज में होने वाली निर्दयता की शुरूआत सबसे पहले घर से तब होती है जब घरों में जानवरों को मारा जाता है या उनकी सही देखभाल नहीं की जाती। जानवरों पर आत्याचार कर हम अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं जिसे बच्चे देखते हैं और वो भी जानवरों के साथ घर के बड़ों की तरह अन्याय करने लगते हैं। अगर आप जानवरों के साथ हिंसापूर्ण व्यवहार कर रहे हैं तो समाज में शांति की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
वंदना शिवा
वंदना शिवा एक दार्शनिक और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं जिन्होंने पर्यावरण संबंधी नारी अधिकारवादी कई पुस्तकों की रचना की है। चिपको आंदोलन में गौरा देवी के साथ-साथ वंदना शिवा ने पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए पेड़़ों के चारों तरफ मानव चक्र तैयार करने की पद्धति को अपनाया। वैश्वीकरण के मॉडल को वंदना शिवा ने अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया और पर्यावरण संरक्षण को अंतर्राष्ट्रीय फोरम का मुद्दा बनाया। उन्होंने कृषि और खाद्य पदार्थ के व्यवहार एवं प्रतिमान में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष किया है। सबसे अहम बात है कि शिवा ने जैव-नीतिशास्त्र के मुद्दे को उठाया जो तारीफ के काबिल है। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से महिला सशक्तिकरण की बात की है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
एक तरफ तो आप बद्रीनाथ, और केदारनाथ पूजा करने जा रहे हैं, पर दूसरी ओर ऐसी ही पवित्र जगह प्रदूषण फैला रहे हैं। अगर हम लद्दाख की बात करें तो वहां की सरकार ने यह कानून बनाया है कि सैलानी प्लास्टिक का कूड़ा अपने साथ वापस ले कर जाएंगे, वे उसे कहीं छोड़ नहीं सकते। अगर इसी तरह की नीतियां हर जगह बनने लगें तो कूड़ा करकट देखने को ही नहीं मिलेगा।
सुनीता नारायण
सुनीता नारायण की गिनती उन महिलाओं में होती है, जो वैज्ञानिक तथ्यों के लिए किसी के खिलाफ भी मोर्चा खोल सकती हैं। पेप्सी और कोका कोला में खतरनाक कीटनाशकों की उपस्थिति की बात कहकर उन्होंने न केवल भारतीय राजनीति बल्कि कारपोरेट जगत में भी भूचाल ला दिया था। इसी तरह बड़ी कंपनियों के शहद में एंटीबायोटिक होने की बात कहकर सनसनी फैला दी । अनुसंधान परियोजना और सार्वजनिक अभियानों की शृंखला में सुनीता ने हमेशा सक्रिय भूमिका निभाई है। सुनीता की महान उपलब्धियों की कारण भारत सरकार ने 2005 में उन्हें 'पदमश्रीÓ अवार्ड से सम्मानित किया था।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
सुनीता नारायण के शब्दों में पर्यावरण आंदोलन की ताकत है सूचना, जन-समर्थन, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया व संपर्क तंत्र और ये ही औपचारिक संस्थानों की कमजोरी हैं। हम आंदोलन की इस ताकत का समावेश शासकीय संस्थानों में कैसे कर सकते हैं? पर्यावरण आंदोलन के समक्ष अगली बड़ी चुनौती यही है।
अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र जाने माने गांधीवादी पर्यावरणविद् हैं। पर्यावरण के लिए वह तब से काम कर रहे हैं, जब देश में पर्यावरण का कोई विभाग नहीं खुला था। बगैर बजट के मिश्र ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस बारीकी से खोज-खबर ली है, वह आज भी करोड़ों रुपए बजट वाले विभागों और परियोजनाओं के लिए संभव नहीं हो पाया है। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया है। वे 2001 से दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। उनकी पुस्तक आज भी खारे हैं तालाब, ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई जिसकी 1 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
अनुपम मिश्र कहते हैं हर युग का एक एजेंडा होता है, इस युग में विकास एजेंडा है, जिसमें खेती शब्द कहीं नहीं है। इस युग में विकास का मतलब है बड़ी-बड़ी बिल्डिंग। प्राकृतिक संसाधनों को रुपए में कैसे बदलें, कोयला बिक जाए और लौह अयस्क बाहर बिक जाए। आजकल सारी पार्टियों का एजेंडा एक है। देश का विकास तुरंत करना। हम प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से विकास करना चाहते हैं पर यह क्यों नहीं समझते कि जब कृषि का विकास होगा ही नहीं तो मानव जाति का विकास कैसे संभव है।
माइक पांडे
प्रसिद्ध पर्यावरणविद माइक पांडे महज जंगली जीवन पर फिल्म बनाने वाले फिल्मकार ही नहीं हैं बल्कि वे एक एनजीओ के साथ मिलक र लड़कियों और उनके माता-पिता के लिए सलाहकार का काम भी करते हैं। इसके अलावा उन्होंने साबरमती आश्रम में न्यूरोपैथी की शिक्षा भी ली है और होम्योपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रशिक्षण भी हासिल किया है ताकि वे जिन आदिवासी लोगों के साथ जंगल में काम करते हैं, उनके बीमार पडऩे पर उनकी मदद कर सकें। माइक पांडे की कोशिशों की वजह से जंगली जानवरों की कई प्रजातियों को फायदा मिला है। भारतीय समुद्र में व्हेल शार्क को फिल्माने के लिए उन्हें कई पुरस्कारों साहित तीन बार प्रतिष्ठित ग्रीन ऑस्कर सम्मान प्राप्त है।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
भारतवासियों की विडंबना यह है कि आज पर्यावरण की बिगड़ती हुई भयावह स्थिति को देखने के बाद भी वे हवा और पानी को लेकर संवेदनशील नहीं हैं। हमें यह सोचना चाहिए कि हम कैसी प्रगति की ओर बढ़ते जा रहे है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए जब हम नदियों को आपस में जोड़ेंगे तो एक नदी का जहरीला पानी दूसरी नदी में भी जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि कोई नदी सूख जाए। अच्छा तो यह होगा कि इन्हीं पैसों को खर्च कर परंपरागत स्त्रोतों को फिर से जिंदा किया जाए। क्या यह सही नहीं होगा कि नदियों को आपस में जोडऩे के अलावा दूसरे विकल्प तलाशे जाएं? जरूरत तो सिर्फ इच्छाशक्ति की है।
एम वाय योगनाथन
पर्यावरणविद के रूप में एम वाय योगनाथन की कहानी बहुत दिलचस्प है। योगनाथान कोयंबटूर के ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन में कंडक्टर का काम करते थे। उन्हे पढऩा लिखना भी नहीं आता था लेकिन फिर भी पेड़ों का महत्व वे समझते थे। धीरे धीरे उन्होंने पेड़ लगाने की शुरूआत की। पिछले छब्बीस सालों में वे लगभग 38,000 पेड़ लगा चुके हैं। योगनाथन को लगता है कि उनका अशिक्षित होना पर्यावरण को बचाने की राह में कहीं भी रूकावट नहीं रहा। आज वे तमिलनाडु के विभिन्न स्कूलों में विद्यार्थियों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं।
ऐसे बचेगा पर्यावरण
जब मैं स्कूल में बच्चों को वृक्षारोपण का महत्व समझाता हूं तो वे खुद भी पौधे लगाना चाहते हैं। ऐसे में उन्हें सिर्फ समझाने से काम नहीं चलता बल्कि मैं खुद उनके साथ मिलकर वृक्षारोपण करता हूं। सच मानिए पर्यावरण को बचाने के लिए किया जाने वाला वृक्षारोपण बहुत ही आसान काम है। बस ऐसे पौधों को चुनें जिन्हें विकसित होने में कम देखभाल की जरूरत पड़े।