कम हो रहा है मुशायरों का दौर
अंजुम रहबर
शायरा
मशहूर शायरा अंजुम रहबर को शायरी करते हुए 35 साल हो गए हैं। इस बीच उन्होंने विदेशों के कई मुल्कों में अपनी शायरी के बल पर विशेष पहचान बनाई है। अंजुम कुछ यूं बयां करती हैं अपने जज्बात.....
वहीं से हुई शुरुआत
मेरे बाबा (वालिद) मरहूम एम एच रहबर अपने जमाने के मशहूर शायरों में से एक थे। घर में शायराना माहौल था। शायरों का आना-जाना और शेर पढ़कर एक-दूसरे को सुनाना मैंने अपने घर में सुना। उन्हीं को देखकर मैंने 17 साल की उम्र में मुशायरों में पढऩा शुरू किया। उस वक्त मैं अपने बाबा के लिखे शेर पढ़ती थी। धीरे-धीरे मैंने खुद शेर लिखना शुरू किए और फिर जो सिलसिला चला वो आज तक जारी है।
कुछ यूं था वो शेर
मैंने जब शायरी करना शुरू की तो कई बार मुझसे गलती भी हो जाती थी। मेरी सारी गलतियों को दुरुस्त करने का काम मेरे बाबा करते थे। शायरी करते हुए मुझे 35 साल हो गए। मेरा पहला शेर था-
जी रही हूं मैं गम उठाने को
ताकि बांटूं खुशी जमाने को।
तेरा नक्शेकदम जो मिल जाए
वो भी काफी है सिर झुकाने को।
अब तैयार हो रही सीडी
मैंने विदेशी मुल्कों में कई बार शिरकत की है और अपनी शायरी से श्रोताओं के दिलों में खास जगह बनाई है। एक जमाना वो भी था जब मैं सुबह दिल्ली में शेर पढ़ती थी तो रात को पाकिस्तान के मुशायरों में शामिल हो जाती थी। अपनी दो किताबों के पूरे हो जाने के बाद फिलहाल मैं अपनी गजलों की एक सीडी तैयार कर रही हूं। इंटरनेट के दौर में अपनी शायरी लोगों तक पहुंचाने का सबसे अच्छा जरिया यही है और इसी के माध्यम से मैं चाहती हूं कि मेरी शायरी युवा पढ़ेें। इसी सीडी की शुरुआत में जो गजल है, उसके बोल कुछ यूं हैं
खोलकर चाहतों का दरवाजा
राह तकना भी बंद कर देगा।
मेरे परदेसी लौट आ वरना
दिल धड़कना भी बंद कर देगा।
देखने को नहीं मिलता
मैं हिंदी और उर्दू दोनों मुशायरों में जाती हूं। जिस तरह से मुशायरों का दौर कम हो रहा है वो तो चिंता का विषय है ही, लेकिन इसके साथ ही मुशायरों के गिरते स्तर को सुधारने के विषय में भी कदक उठाए जाने चाहिए। कहा जाता है कि तहजीब हर मुशायरे की जान होती है लेकिन अब पहले जैसी तहजीब भी मुशायरों में देखने को नहीं मिलती।
सारी जिंदगी याद रहते हैं
मेरे मनपसंद शायर वसीम बरेवली, राहत इंदौरी और मुनव्वर राना हैं। मैंने गुजरे जमाने के शायरों को भी काफी पढ़ा है और उनके कलाम दिल के करीब हैं। उनमें से किसी एक का नाम बताना मुश्किल है क्योंकि हर शायर का अंदाज दूसरे शायर से जुदा होता है। कभी-कभी ये भी होता है कि कोई शायर कई शेर कहने के बाद भी श्रोताओं को प्रभावित नहीं कर पाता तो कभी ये भी होता है कि किसी शायर के एक या दो शेर ही लोगों को सारी जिंदगी याद रहते हैं।
वो हैं मेरी प्रेरणा
जब मैं छोटी थी तो मेरी प्रेरणा मेरे बाबा थे। जब शादी हुई तो राहत इंदौरी और अब मेरा बेटा समीर राहत मेरे लिए प्रेरणा हैं। वह मेरी कमियों को बताता है तो अच्छाइयों की तारीफ भी करता है।
वो जल्दी थक जाते हैं
जो श्रोता मेरी शायरी पसंद करते हैं उनकी शुक्रगुजार हूं और जो युवा शायर अब अपनी शायरी से इस क्षेत्र में आगे आ रहे हैं उनसे कहना चाहूंगी कि शायरी को अपनी जिंदगी का एक हिस्सा मानकर उस पर काम करेें। धीरे-धीरे मंजिलों को पार करना सीखें। ये याद रखेें जो तेज चलते हैं वो जल्दी थक जाते हैं।
प्रस्तुति-शाहीन अंसारी
अंजुम रहबर
शायरा
मशहूर शायरा अंजुम रहबर को शायरी करते हुए 35 साल हो गए हैं। इस बीच उन्होंने विदेशों के कई मुल्कों में अपनी शायरी के बल पर विशेष पहचान बनाई है। अंजुम कुछ यूं बयां करती हैं अपने जज्बात.....
वहीं से हुई शुरुआत
मेरे बाबा (वालिद) मरहूम एम एच रहबर अपने जमाने के मशहूर शायरों में से एक थे। घर में शायराना माहौल था। शायरों का आना-जाना और शेर पढ़कर एक-दूसरे को सुनाना मैंने अपने घर में सुना। उन्हीं को देखकर मैंने 17 साल की उम्र में मुशायरों में पढऩा शुरू किया। उस वक्त मैं अपने बाबा के लिखे शेर पढ़ती थी। धीरे-धीरे मैंने खुद शेर लिखना शुरू किए और फिर जो सिलसिला चला वो आज तक जारी है।
कुछ यूं था वो शेर
मैंने जब शायरी करना शुरू की तो कई बार मुझसे गलती भी हो जाती थी। मेरी सारी गलतियों को दुरुस्त करने का काम मेरे बाबा करते थे। शायरी करते हुए मुझे 35 साल हो गए। मेरा पहला शेर था-
जी रही हूं मैं गम उठाने को
ताकि बांटूं खुशी जमाने को।
तेरा नक्शेकदम जो मिल जाए
वो भी काफी है सिर झुकाने को।
अब तैयार हो रही सीडी
मैंने विदेशी मुल्कों में कई बार शिरकत की है और अपनी शायरी से श्रोताओं के दिलों में खास जगह बनाई है। एक जमाना वो भी था जब मैं सुबह दिल्ली में शेर पढ़ती थी तो रात को पाकिस्तान के मुशायरों में शामिल हो जाती थी। अपनी दो किताबों के पूरे हो जाने के बाद फिलहाल मैं अपनी गजलों की एक सीडी तैयार कर रही हूं। इंटरनेट के दौर में अपनी शायरी लोगों तक पहुंचाने का सबसे अच्छा जरिया यही है और इसी के माध्यम से मैं चाहती हूं कि मेरी शायरी युवा पढ़ेें। इसी सीडी की शुरुआत में जो गजल है, उसके बोल कुछ यूं हैं
खोलकर चाहतों का दरवाजा
राह तकना भी बंद कर देगा।
मेरे परदेसी लौट आ वरना
दिल धड़कना भी बंद कर देगा।
देखने को नहीं मिलता
मैं हिंदी और उर्दू दोनों मुशायरों में जाती हूं। जिस तरह से मुशायरों का दौर कम हो रहा है वो तो चिंता का विषय है ही, लेकिन इसके साथ ही मुशायरों के गिरते स्तर को सुधारने के विषय में भी कदक उठाए जाने चाहिए। कहा जाता है कि तहजीब हर मुशायरे की जान होती है लेकिन अब पहले जैसी तहजीब भी मुशायरों में देखने को नहीं मिलती।
सारी जिंदगी याद रहते हैं
मेरे मनपसंद शायर वसीम बरेवली, राहत इंदौरी और मुनव्वर राना हैं। मैंने गुजरे जमाने के शायरों को भी काफी पढ़ा है और उनके कलाम दिल के करीब हैं। उनमें से किसी एक का नाम बताना मुश्किल है क्योंकि हर शायर का अंदाज दूसरे शायर से जुदा होता है। कभी-कभी ये भी होता है कि कोई शायर कई शेर कहने के बाद भी श्रोताओं को प्रभावित नहीं कर पाता तो कभी ये भी होता है कि किसी शायर के एक या दो शेर ही लोगों को सारी जिंदगी याद रहते हैं।
वो हैं मेरी प्रेरणा
जब मैं छोटी थी तो मेरी प्रेरणा मेरे बाबा थे। जब शादी हुई तो राहत इंदौरी और अब मेरा बेटा समीर राहत मेरे लिए प्रेरणा हैं। वह मेरी कमियों को बताता है तो अच्छाइयों की तारीफ भी करता है।
वो जल्दी थक जाते हैं
जो श्रोता मेरी शायरी पसंद करते हैं उनकी शुक्रगुजार हूं और जो युवा शायर अब अपनी शायरी से इस क्षेत्र में आगे आ रहे हैं उनसे कहना चाहूंगी कि शायरी को अपनी जिंदगी का एक हिस्सा मानकर उस पर काम करेें। धीरे-धीरे मंजिलों को पार करना सीखें। ये याद रखेें जो तेज चलते हैं वो जल्दी थक जाते हैं।
प्रस्तुति-शाहीन अंसारी